श्रीकृष्णांक
चीर-हरण का रहस्य
किन्तु तैलमर्दित शरीर की भाँति उन्हें फिर माया का जल नहीं लगता- ‘नैव किंचित करोति सः’ इसीलिये निर्भय होकर वे संसार में भगवान के दास के वेश में विचरण करते हैं और भावी पथ-यात्रियों के लिये काल की पाषाण-देह पर अपना पदचिह्न अंकित कर जाते हैं। यही लीला बाह्य के साथ अन्तर का, ससीम के साथ असीम का, अधिभूत के साथ अध्यात्म का, जीव के साथ शिव का और आत्मा के साथ परमात्मा का मिलन-विलास हैं। भीतर-बाहर एक करक सर्व जीवों को शिवरूप मानकर समस्त आत्माओं के अन्दर, समस्त वस्तुओं के अन्दर उसी ’सर्व’ का परमात्मा रूप में साक्षात्कार करके साधक परम तृप्ति लाभकर धन्य और कृतकृत्य हो जाता हैं। जब तक कि यह मिलन नहीं होता, तब तक हम अभिमान के परदे में छिपे रहना अच्छा समझते है, अपने को परदे के बाहर करके निस्संग होकर भगवान के सामने आने में संकाच का अनुभव करते हैं। तभी तक अपूर्णं कामनाएँ बार-बार आकर हमें जर्जंरित करती हैं, तभी तक यह सारा विश्व रहस्य हमारे सामने अस्पष्ट, अज्ञात और अनुपलब्ध बना हैं, तभी तक मान-अभिमान, सहस्रों भेदसागरों में उत्ताल तरंगों की भाँति नृत्य करता है। जब जीव संसार में सुख-शान्ति न पाकर कामाग्नि में जलकर रोदन करता है, जब वह एक परमात्मा को छोड़कर और कुछ भी तृप्तिकर और शान्तिप्रदायक नहीं समझता; तब वह यह सब छोड़कर अपने-आपको भूलकर केवल उनके प्रेम का भिखारी बनता है ! तभी वह पूरी निर्भरता के साथ उनके चरणों में शरण लेकर करबद्ध होकर आर्तस्वर से पुकारता हैं- ’प्रभों ! देखो मुझे पैरों से मत ठुकराओ, दासी मानकर दिल में रखो !’ भक्त के मन की जब ऐसी अवस्था हो जाती है तभी वह माया के परदे को भेदकर बाहर निकलने के लायक बनता है। तभी परमात्मा के साथ रास-रस-रंग और सम्भोग करने की उसे योग्यता प्राप्त होती है। जब तक हम उन्हें अपने से अलग समझेंगे तब तक तो उनके निकट संकोच रहेगा ही। जहाँ उन्हें अपने आत्मा से अभिन्न समझा, बस, वहीं उनके साथ अपना निरन्तर योग अनुभव करने लगेंगे। फिर उन्हें दूसरा नहीं समझेंगे, बल्कि परम आत्मीय समझेंगे। तब भीतर-बाहर की एक हालत होगी। अभिमान का नाम-निशान न रहेगा। तब आत्मा-परमात्मा एकरूप होंगे, यही महातीर्थं सागर-संगम है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीकृष्णार्पणमस्तु
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