श्रीकृष्णांक
चीर-हरण का रहस्य
एक बार अपने आपको सर्वथा भूलकर मेरे पास आकर तो देखो। वे कहती हे प्रभो ! अपने आपको किसी प्रकार भी तो नहीं भूल पाती। तुम्ही बतलाओ, किस प्रकार सब कुछ छोड़ छोड़कर मन के परदे को दूर करके तुम्हारे निकट आवें ? संसार सागर में आकण्ठ निमग्न रहने के कारण महान क्लेश हो रहा है; पर तो भी अपने आपको सर्वथा भूलकर तुम्हारे प्रति आत्म समर्पण करने की शक्ति हम में अब तक नहीं आ सकी है। इस दशा में भगवन ! तब फिर हमारी क्या दशा होगी ? क्या हमारा जन्म जीवन सब कुछ व्यर्थ चला जायगा ? जीव की इस प्रकार की आकुलता देखकर भगवान ही उसका उपाय कर देते है। मन की कैसी विचित्र अवस्था हो जाती है। भगवान को पाये बिना भी नहीं रहा जाता और संसार के प्रति जो झुकाव है वो भी पूरा नहीं हो जाता। इस अवस्था में साधक को प्राणान्त कष्ट होता है। गोपिकाओं ने भी कातर कण्ठ से यही कहा था- हे श्यामसुन्दर ! हमसब तुम्हारी दासी है, हम जाडे़ से मर रही हैं, हमें वस्त्र-दान दो। अर्थात् भगवान भी रहें और आवरण भी रहे; यही जीव की इच्छा रहती है; पर भगवान तो छोड़ने वाले नहीं है। वे बोले, तुम मुझे चाहती हो या अपने आपको चाहती हो ? यदि मुझे चाहती हो तो मेरी आज्ञा का पालन करो। आओ, एक बार निरभिमान होकर मेरे पास आओ, एक बार सब कुछ भुलकर, चराचर ब्रह्माण्ड को विस्मृति के सागर में डुबाकर संस्कारशून्य निरावरण होकर मेरे पास आकर खड़ी हो जाओ। तुम तो सदा मेरी कामना करती रही हो, आज तुम्हारी वह चिरवाच्छिंत और चिरसन्चित आकांक्षा पूरी होगी। किसी दूसरे की ओर से नहीं, केवल भगवान की ओर से ही जब इस प्रकार का आहान जीव के अन्तरतम प्रदेश में जा पहुँचता है, तब उस अभिसारमुखी प्रवृत्ति को फिर कोई भी निवृत नहीं कर सकता। साधारण मनुष्य कामदेव के बाणों से घायल होकर पागल की भाँति जैसे चारों ओर से ज्ञानशून्य हो जाता है, उसी प्रकार आज ये लोग भी मदनमोहन के मदनविजयी मदनशर से आहत है। अब क्या वे उन्हें त्यागकर संसार का भजन कर सकती है ? तभी कृष्णकामिनी प्रेममयी गोपियाँ श्रीकृष्ण प्रेम से विभोर होकर, सब कुछ छोड़कर, सर्वशून्य बनकर, परम पूर्ण को प्राप्त करने के लिये, उनके चरणों में दौड़ी आयी है। वे नग्न होकर उनके निकट लज्जावनत मुख से आ खड़ी हुई; पर फिर भी शायद उनके मन के एक छिपे हुए कोने में, कहीं शायद संस्कार लगा हुआ रह गया। इसी से प्रेमघन श्रीकृष्ण मुस्कुराकर बोले- वह किञ्चित संस्कार भी छोड देना होगा। कोई भी आश्रय पकड़े न रह सकोगी, अनन्य चित्त होकर एक मुझमें ही पूर्ण आश्रय प्राप्त करोगी।’ तब गोपियों ने उनकी मधुर वाणी से मुग्ध होकर एक बार उन्हीं नवनीरद, नवीन कान्त श्रीकृष्ण के मुख की ओर ताककर एकदम सब संकोच भाव त्यागकर, निस्संग होकर, दोनों हाथ उठाकर उनकी कृपाभिक्षा चाही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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