श्रीकृष्णांक
चीर-हरण का रहस्य
सायणभाष्य पढ़नेपर तो वेद के वास्तविक रहस्य से सायाह्र के अन्धकार की तरह हमारा हृदय-देश और भी घन अन्धकार से आच्छादित हो जाता है। जिस वेदवाणी की युग-युगान्तरों से भारतीय आर्यजाति का सर्वश्रेष्ठ रत्न समझकर पूजा होती थी, जिस वेदोक्त साधन के अवलम्बन से ब्राह्मणों की ब्रह्म-शक्ति स्फुरित हो उठती थी। आज समय के प्रभाव से हमारे हृदय से क्रमश: उस वाणी का विलोप हो रहा है। ऐसी स्थिति में श्रीभागवत और पुराणों की विक्षिप्त और प्रक्षिप्त रचनाओं में श्रीकृष्ण के महान चरित्र की काव्य उपन्यासों के कल्पित प्रसंगों से तुलना किया जाना, कौन-सी आश्चर्य की बात है? हमारा यही एक दोष है कि हम पूरे शास्त्र को सामने रखकर विचान नहीं करते। शास्त्र के किसी एक ही शलोकपर विचार करने से भ्रम होने की सम्भावना है। हम किसी जगह के सामान्य अंशविशेष को सुनकर शास्त्र के सम्बन्ध में जो कुछ धारण कर लेते हैं वह अधिकांश समय ही भ्रमपूर्ण होती है। भ्रान्त सिद्धान्त के फलस्वरूप हृदय में जो विकृत संस्कार जम जाते हैं, आगे चलकर सहसा उनका मिटाना कठिन हो जाता है। जिन लोगों ने श्रीभागवत के दशम स्कन्ध को खूब मन लगाकर पढ़ा है, उनसे यह सत्य छिपा नहीं रह सकता। थोड़ी देर के लिये मान लीजिये श्रीकृष्ण साक्षात भगवान नहीं थे तो भी गोपियों के वस्त्र-हरण के समय श्रीकृष्ण की उम्र दस वर्ष से अधिक नहीं थी। व्रज में श्रीकृष्ण ने निवास ही किया था केवल ग्यारह वर्ष की उम्र तक भागवत में इसका प्रमाण हैं- यह अवस्था साधारणतः कामोद्दीपन का समय नहीं हैं, अतएव व्रज-बालाओं के साथ श्रीकृष्ण के किसी प्रकार अबैधप्रणय की कल्पना भी करना सर्वथा युक्ति विरुद्ध हैं। युवतियों के लिये भी किसी नौ-दस साल के बालक के प्रति कामभाव से आसक्त होना सर्वथा अस्वाभाविक है, खासकर, गाँव-गँवई की स्त्रियों के लिये, जहाँ का वायुमण्डल अकाल-यौवन के सम्बन्ध में किसी प्रकार भी अनुकूल नहीं होता। इसीलिये गोपियों के वस्त्र-हरण को बालसुलभ चपलता समझकर भी उसकी उपेक्षा की जा सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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