श्रीकृष्णांक
मेरा अलौकिक गान
मैं सहसा कम्पित हो उठी— इस अलौकिक लीला को देखकर मेरा हृदय आनन्द मिश्रित कौतूहल से भर गया। इसी कौतूहल में मैंने अपने तन की तरफ देखा। क्या देखती हूँ कि जिन्होंने मेरे कन्धे पर हाथ रखे थे मैं उनकी ओर पीठ किये उन्ही के[1] चरणों में बैठी हूँ। मैंने अपने वक्ष:स्थल पर दृष्टिगोचर डाली। वे ही भीतर बैठे उस रागिनी को गाते दृष्टिगोचर हुए। अब मेरी समझ में आया कि रागिनी में इतना सामजंस्य, इतना मार्दव, ऐसा अपूर्व मिठास कैसे और कहाँ से आ रहा था। परन्तु दूसरे ही क्षण में मैं विचित्र भ्रम में पड़ गयी। मुझे निश्चय नहीं हो सका कि इस रागिनी को मैं गा रही हूँ और मैं सुन रही हूँ। ज्यों-ज्यों इस पर विचार करने लगी, प्रश्न अधिकाधिक जटिल होता गया। अब तो मुझे यह भी सन्देह होने लगा कि इस प्रश्न का कर्ता कौन है ?ʻमै̕ हूँ या ʻवे̕। मैंने अपने चारों ओर की असंख्य बालिकाओं की ओर देखा। उनका स्वरूप, उनकी आकृति, उनका लावण्य, उनकी चेष्टा, सब मेरे ही सदृश[2] थी। वहाँ भी यही कौतुक पाया। उनके हृदय के भीतर भी वही बैठे दीख पडे़। मैं बड़ी गड़बड़ी में पड़ गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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