श्रीकृष्णांक
हिन्दू–संगठन का मूल-मन्त्र
3-भगवद्गीता मे कोई बाधा नहीं, ऊँचे-से-ऊँचा और नीचे-से-नीच इसका अधिकारी है, यह अटल सिद्धान्त की पुस्तक है जिस पर कालका कोई प्रभाव नहीं। धर्म के दो भाग होते हैं एक सिद्धान्त (Principles) दूसरे व्यवहार (Practices) जो उन सिद्धान्तों के काम में लाने के लिये देश-काल के अनुसार बरते जाते हैं, इन व्यवहारों के सम्बन्ध में श्रीमद्गवद्गीता में बड़ी स्वतन्त्रता है, अत: यह सदा सर्वदा मौलिक और नित नवीन बनी रहती है। संसार में नयी-नयी सभ्यताओं का उदय और अवसान होगा परन्तु इस पर उनका कोई प्रभाव न होगा, यह प्रत्येक सभ्यता को अपना ले सकती है। भारत के प्रसिद्ध योगी श्रीअरविन्द लिखते हैं—
ʻʼIt is large, free, subtle and Profound. It is for all time and for all men, not for a particular age and country. Specially it is breaking free from external forms, details dogmatic notions and going back to principles and the great facts of our nature and our being. The Gita is a book that has worn extraordinarily well and it is always as fresh and still in its real substance, quite as new as when it first appeared.ʼʼ अर्थात ʻयह बड़ी स्वतन्त्र सूक्ष्म और गंभीर पुस्तक है। यह सब युगों के लिये और सब जाति के लिये है, किसी युगविशेष और देशविशेष के लिये नही, क्योंकि यह आडम्बर, पुनरावृत्ति तथा साम्प्रदायिक- भाव से मुक्त है, तथा यह हमारे स्वभाव और जीवन के महान तत्वों और सिद्धान्तों के जड़तक चली गयी है।ʼ ʻगीता एक ऐसी पुस्तक है, जिसने अदभुत ख्याति प्राप्त की है, यह सदा अपने तात्विक, गम्भीर और सुन्दररूप में रहती है और ठीक उसी प्रकार नये रूप में दीख पड़ती है जैसी यह प्रथम प्रकट हुई थी।ʼ 4-प्रत्येक मनुष्य को सुन्दर नागरिक बना सके और साथ-ही-साथ आध्यात्मिक पथ की ओर ले जा सके— इस प्रकार की पुस्तक संसार भर के ग्रन्थों में गीता ही हो सकती है। प्राय: लोग ऐसा विचारते हैं कि—
अर्थात ʻदुनिया के साथ-साथ भगवान की अभिलाषा करना—यह एक ख्याल है, दुर्लभ और पागलपन है।ʼ लेकिन गीता के तत्व ने इस विचार को ही पागलपन सिद्ध कर दिखाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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