श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चरित्र
स्वयंवर में दुर्दान्त सात बैलों को एक ही साथ नाथकर नाग्रिजिती नामकी राजकुमारी के साथ विवाह किया, मार्ग में जिन हतमान राजाओं ने मूर्खातावश शस्त्र धारण करके भगवान का सामना किया, उनको श्रीहरि ने मारकर मुक्त कर दिया। भगवान शरीर में एक घाव भी नहीं लगा। विषयी पुरुष के समान सत्यभामा का प्रिय करने के लिये जब भगवान स्वर्ग में जाकर कल्पवृक्ष लाये, तब इन्द्राणी के कहने से स्त्रीवश इन्द्र क्रोधित होकर युद्ध करने को उद्यत हुआ, तब प्रभु ने इन्द्र को भी नीचा दिखाया। पृथ्वी के पुत्र भौमासुर को भगवान युद्ध में चक्र से मारा, यह देखकर जब पृथ्वी ने बहुत प्रार्थना की तब भौमासुर के पुत्र भगदत्त को उसके पिता का राज्य देकर भगवान उसके अन्त:पुर में गये। वहाँ भौमासुर के द्वारा हरण करके लायी हुई अनेक दीन राजकुमारियों ने दीनबन्धु हरि को देखकर हर्ष, लज्जा और प्रेमयुक्त दृष्टि द्वारा उन्हें पति स्वरूप से ग्रहण किया। भगवान ने एक ही मुहूर्त में उन सोलह हजार एक सौ राजकुमारियों का अलग-अलग मन्दिरों में अपनी माया से उतने ही रूप धरकर विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया और माया द्वारा अनेक रूप होने की इच्छा से प्रत्येक स्त्री में अपने सदृश रूप- गुण वाले दस-दस पुत्र उत्पन्न किये। कालवयन, जरासन्ध, शाल्व आदि राजा जो सेना लेकर मथुरापुरी को घेरे हुए थे, उनको स्वयं और भीम आदि को अपना दिव्य बल देकर उनके द्वारा नष्ट कराया। शम्बर, द्विविद, बाणासुर, मुर, बल्वल और दन्तवक्रादि को स्वयं भगवान ने मारा और दूसरों को अन्य लोगो द्वारा नष्ट कराया। हे विदुर ! दुर्योधनादि आपके भतीजों का पक्ष लेकर आये हुए राजाओं को भी महाभारत में भगवान ने नष्ट कराया, जिनकी सेना से कुरुक्षेत्र की भूमि काँप उठी थी। कर्ण, दु:शासन और शकुनी के कुमन्त्र से हतश्री और भीम की गदा के प्रहार से भग्न–जंघा वाले दुर्योधन को सचिव सहित समरभूमि में पड़े हुए देखकर भगवान को पूर्णतया सन्तोष नहीं हुआ ! भगवान ने विचारा कि अठारह अक्षौहिणी सेना से पृथ्वी का भार नहीं उतरा, अभी यादवों का बल बना हुआ हैं, इस बल के नष्ट हुए बिना पृथ्वी का भार नहीं उतरेगा, अत: इनमें परस्पर विवाद कराकर इनका संहार कराना चाहिये, इसके सिवा अन्य उपाय नहीं है। तदनन्तर विचारकर भगवान ने युधिष्ठिर को राज्यासन पर बैठा, साधुओं का मार्ग दिखाते हुए सुहृद यादवों को आनन्दित किया। कुरुवंश के अंकुररूप उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिये अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा, परन्तु श्रीकृष्णचन्द्र ने उसे बचा लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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