श्रीकृष्णांक
कृष्णस्तु भगवान्स्वयम
लोकैषणा अर्थात प्रतिष्ठा की इच्छा के विषय में तो भगवान के लिये कहना ही क्या है, जिन्होंने अपनी प्रतिज्ञा को तोड़कर भी भीष्म की प्रतिज्ञा को पूर्ण किया तथा राजसूय-यज्ञ में सर्वपूज्य होकर भी अभ्यागतों के चरण धोये और अपने को- ‘अमानी मानदो मान्यः’ (तथा) ‘माननमानयोरूतुल्यः’ अर्थात लौकेषणारहित स्थापित किया। स्त्री के विषय में तो इनता ही कहना पर्याप्त होगा कि स्त्री से दूर रहकर विषयवासनारहित रहने में उतनी बड़ी बात नहीं है, जितनी हजारों स्त्रियों के बीच में रहते हुए भी सर्वथा विषयवासनारहित रहने में है। यह बात भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने ही दिखायी।(1) उत्तम्भयंन्रतिपतिं रमयांचकार (2)सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरत: (3) भगवतो न मनो विजेतुम, स्वैर्विभ्रमै: समशकंवनिता विभूम्न:॥ (4) पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनंगवाणैर्यस्येंद्रियं विमथितुं करणैर्न शेकु:॥ इत्यादि अनेक प्रमाणों से सिद्ध है कि भगवान जितेन्द्रिय शिरोमणि और परमोत्कृष्ट योगिराज थे। दिग्दर्शनार्थ दिये हुए इन दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में ‘वैराग्यस्य समग्रस्य’ इस लक्षण का भी समन्वय हो गया। श्रीभगवान के सारे इतिहास से तथा भगवद्गीता से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण कभी किसी प्रकार के बन्धन में तनिक-से भी नहीं थे। वे सर्वथा मुक्त ही रहे। इस सम्बन्ध में इतना ही विचार करना पर्याप्त होगा कि सब-के-सब मुक्त पुरुष जिनके चरणों में पहुँचकर कृतार्थ होते हैं, अर्थात जिनके चरण कमल मोक्ष के मूलस्थान हैं, उनमें ‘समग्र मोक्ष’ के समन्वय के विषय में प्रश्न ही कैसे हो सकता है ? इससे श्रीभगवान में ‘मोक्षस्य समग्रस्य’ इस छठे लक्षण का समन्वय हो गया। 'कृष्णास्तु भगवांस्वयम' पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ Absolute and All-round Perfection
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