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भगवन् ! अब नहीं रहा जाता। अधर्म का अन्धकार बहुत घना हो गया है। अन्याय का अभाव होता नहीं दीखता। अत्याचार-अनाचार की अति हो चुकी। भगवन् ! अब तो तुम स्वयं ही पधारो, तभी काम चलेगा, कृष्ण ! तुम्हारी जन्मभूमि के कष्ट पराकाष्ठा को पार करने वाले हैं। देवकीनन्दन ! माता की बेडियां काटो। गोपाल ! तुम्हारी गौएं तुम्हें पुकार रही हैं, उनकी संख्या नाम मात्र की रह गयी है, पधारो, गो-वंश की रक्षा करो। गोपीनाथ ! नारी-जाति की मर्यादा बचाओ। एक द्रौपदी की दीनताभरी वाणी तुम नहीं सह सके थे और तुरंत प्रकट होकर तुमने उसकी लाज रखी थी। पर आश्चर्य है, यहाँ आज असंख्य द्रौपदियों की लाज जाते देखकर भी तुम टस से मस नहीं होते। दीनबन्धु ! एक सुदामा की दीनता देखकर तुम अधीर हो उठे थे, पर हाय, यहाँ तो आज करोडों दीन त्राहि-त्राहि कर रहे हैं ! बेचारे परिश्रम में रात को दिन और खून को पसीना कर देते हैं, परन्तु फिर भी पेट भर भोजन नहीं पाते।
अपरिमित अन्न पैदा करके भी जो दाने दाने के लिये दु:खी होते हैं, गो पालन के द्वारा दूध-घी की नदियां बहाकर भी जिनके लाल एक-एक बूँद दूध के लिये बिलखते हैं, धर्म प्रवर्तक धर्म संकट में है, इन्हें उबारो ! अवनीतल से ब्राह्मणत्व का लोप हो रहा है, वीर परंतप पार्थ के वंशज आज सियार के डर से सिकुड़ जाते हैं। तुम्हारे वैश्यों के व्यापार की पवित्रता प्राय: नष्ट हो गयी है। तुम्हारे शूद्रों की सुनने वाला कोई नहीं। उनके सामने उद्धार का कोई नहीं। जैसे तुम्हारा वर्णधर्म विनष्ट सा हो गया, वैसे ही तुम्हारे स्थापित किये हुए आश्रम-धर्म का भी आचरण आज असम्भव हो रहा है। करुणाकर ! पधारो, पधारो, शीघ्र पधारो। भक्तवत्सल ! अब भी तुम विचलित नहीं होगे ? उठो, देर मत करो। अपने वचनों का ध्यान करो। सनातन नियमों का पालन करो। आर्तों की पुकार सुनो। अधीर होकर दौड़ पड़ो। अधर्म का विनाश कर धर्म की संस्थापना करो। दुष्टों का दलन और साधुओं का संरक्षण करो। आओ, भगवन् ! आओ ! मैं करोड़ों कण्ठों से तुम्हें पुकार रहा हूँ, असंख्य हाथों को पसारे तुम्हारा आह्वान कर रहा हूँ। आर्त-दु:ख भंजन ! मेरी प्रार्थना पर कान दो।
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