श्रीकृष्णांक
आँसू की दो बूँदें
हृदय भीषण यन्त्रणाओं से सन्तप्त था। इच्छाएँ अनेक थीं, पर एक की भी पूर्ति नहीं होती थी। इन यन्त्रणाओं से पिण्ड छुड़ाने के लिये अनेक भागीरथ प्रयत्न किये। किसी कहा ‘द्रव्य ही सब बाधाओं की निवृत्ति का उपाय है। उसी के पीछे पड़ा। रात-दिन एक किया चोटी का पसीना एड़ी तक बहाया। द्रव्य का ढेर लग गया। नौकर-चाकर घर में खूब हो गये। घोड़ा-गाड़ी, मोटर की भी कमी न रही। विलास-सामग्री सब उपस्थित थी, पर चित्त की अज्ञात वंदना वैसी-की-वैसी थी। तृप्ति और शान्ति के दर्शन दुर्लभ ही थे। किसी ने कहा ‘सब सुख का मूल स्त्री है। उसके बिना सुख कहाँ ? ‘मूलं नास्ति कुतः शाखा।’ उसका भी कहा माना। विवाह किया। पत्नी भी सुन्दरी और सुशीला मिली। आज्ञा कारिणी भी थी। परस्पर अनुराग भी अच्छा था। पर कुछ फल नहीं हुआ, हृदय का काँटा कसकता ही रहा। किसी ने हुकूमत में ही सुख बतलाया, किसी ने आलस में पडे़ रहने में ही किसी ने गाना बजाना ही आनन्द का उपाय बताया तो किसी ने नाटक सिनेमा को ही सुख का साधन सिद्ध किया। सबका कहना किया, पर किसी से कुछ न हुआ। बात वहीं हुई कि ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की।’ तब सब कुछ छोड़-छाड़ एकान्त में बैठ यम, नियम, प्राणायाम आदि योगांगो का साधन किया। सांख्य के मनन और वेदान्त के विचार में लगा, पर मनचाही बात न मिली। चित्त की उछल-कूद मिटी, संकल्पों ने बाधा देना छोड दिया, इच्छाएँ कम हो गयीं, पर मन तो इतने से नहीं मानता था। वह तो और ही कुछ चाह रहा था। तीर्थों में भ्रमण किये, मन्दिरों-मन्दिरों में भटका, साधु महात्माओं के दर्शन किये, कथा-भागवत सुनी, फिर भी अतृप्ति, असन्तोष बना ही रहा। समीप ही एक रमणीय सरोवर था। उसके तट पर हरित वृक्ष वल्लरियों से लदी हुई एक छोटी सी पहाड़ी थीं। मैं उसी एकान्त पहाड़ी की चोटी पर जाकर बैठ गया, प्रातःकाल का समय था। वायुमण्डल शान्त और नीरव था। पक्षियों के मधुर कूजन और सरोवर में उठने वाली छोटी तरंगों के कोमल शब्द को छोड सर्वत्र निस्तब्धता थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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