सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग नट
सत्त्व, रज और तम- ये उसके तीन गुण हैं, ऐसा मान लो। उन तीनों गुणों ने सबसे पहले महत्तत्त्व को उत्पन्न किया, उस महत्तत्त्व से अहंकार प्रकट हुआ। अहंकार के तीन भेद (सात्त्विक, राजस, तामस) हुए, उनमें सात्त्विक अहंकार से मन और ग्यारह देवता (दस इन्द्रिय एवं मन के देवता) उत्पन्न हुए। रजोगुणप्रधान अहंकार से इन्द्रियों का विस्तार (प्राकट्य) हुआ। तमोगुण प्रधान अहंकार से तन्मात्राएँ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) निकलीं। इन तन्मात्राओं ने पंचतत्त्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) को उत्पन्न किया। इन सब (महत्तत्त्व, अहंकार, मन, देवता, तन्मात्रा एवं पञ्चतत्त्व) -के मिलने से (ब्रह्माण्ड रूपी) एक अंडा बना। वह अंडा जड़ था, चेतन नहीं हो रहा था, तब श्री हरि के चरणों की छाया में मन को पिरोकर ब्रह्मा जी ने इस प्रकार की प्रार्थना प्रारम्भ की- ‘हे महाराज! आपकी शक्ति के बिना यह अंडा चेतन नहीं हो रहा हैं अतः कृपा कीजिये, जिससे यह चेतना हो जाय।’ (यह प्रार्थना सुनकर भगवान् ने) उस अंडे में अपनी शक्ति की स्थापना की, इससे नेत्र आदि इन्द्रियों का विस्तार (प्राकट्य) हुआ। चौदहों लोक उस अंडे में ही बने। ज्ञानी लोग उस अंडे को ही विराट् कहते हैं। चेतन को ही आदि पुरुष कहा जाता है, जिसमें तीनों गुण नहीं रहते (जो तीनों गुणों से परे जिसका जड़ स्वरूप (जड़ जगत्) है, उसे माया समझो; इसी ज्ञान को हृदय में ले आओ। जब तक हृदय में अज्ञान है, तब तक वह चेतन को जान नहीं सकता। वह पुत्र-स्त्री को अपना समझता है और उनसे बहुत अधिक ममत्व बढ़ाता है। जैसे कोई स्वप्न में दुःख और सुख को देखे और वह उनको ही सत्य मान ले; किंतु जब जाग जाता है, तब (स्वप्न के उस दुःख-सुख को) सत्य नहीं मानता, उसी प्रकार ज्ञान हो जाने पर (ज्ञानी) जगत् को (मिथ्या) समझ लेता है? जैसे अनेक घड़ों में से प्रत्येक में सूर्य का प्रतिबिम्ब दिखायी पड़ता है, उसी प्रकार प्रत्येक शरीर में एक ही चेतन स्थित है। घड़ा उत्पन्न होता है और वह नष्ट हो जाता है, परंतु सूर्य सदा एक समान रहते हैं; उसी प्रकार जन्म और मृत्यु जड़ शरीर के ही होते हैं, (शरीर में स्थित) चेतन पुरुष (जीवात्मा) अमर और अजन्मा (शास्त्रों में) कहा गया हैं उस (चेतन) को जो ऐसा (अजन्मा और अमर) जान लेता है, उसे फिर उन (शरीर, स्त्री, पुत्रादि) से मोह नहीं होता। जब तक ऐसा ज्ञान न हो जाय, तब तक मनुष्य को अपने वर्ण-धर्म (शास्त्र ने उसके वर्ण का जो धर्म बताया है, उस) को छोड़ना नहीं चाहिये।
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