(125)
मन रे, माधव सौं करि प्रीति ।
काम-क्रोध-मद-लोभ तू, छाँड़ि सबै बिपरीत ।।
भौंरा भोगी बन भ्रमे, (रे) मोद न मानै ताप ।
सब कुसुमनि मिलि रस करै, (पै) कमल बंधावै आप ।।
सुनि परमिति पिय प्रेम की, (रे) चातक चितवन पारि ।
घन-आसा सब दुख सहै, (पै) अनत न जाँचै बारि ।।
देखौ करनी कमल की, (रे) कीन्हौं रवि सौं हेत ।
प्रान तज्यौ, प्रेम न तज्यौ, (रे) सूख्यौ सलिल समेत ।।
दीपक पीर न जानई, (रे) पावक परत पतंग ।
तनु तौ तिहि ज्वाला जर्यौ, (पै) चित न भयौ रस-भंग ।।
मीन बियोग न सहि सकै, (रै) नीर न पूछै बात ।
देखि जु तू ताकी गतिहि, (रे) रति न घटै तन जात ।।
परनि परेवा प्रेम की, (रे) चित लै चढ़त अकास ।
तहँ चढ़ि तीय जो देखई, (रे) भू पर परत निसास ।।
सुमिरि सनेह कुरंग कौ, (रे) स्रवननि राच्यौ राग ।
धरि नसकत पग पछमनौ, (रे) सर सनमुख उर लाग ।।
देखि जरनि, जड़, नारि, की, (रे) जरति प्रेम के संग ।
चिता न चित फीकौ भयौ, (रे) रची जु पिय कै रंग ।।
लोक-बेद बरजत सबै, (रे) देखत नैननि त्रास ।
चोर न चित चोरी तजै, (रे) सरबस सहै बिनास ।।
सब रस कौ रस प्रेम है, (रे) बिषयी खेलै सार ।
तन-मन-धन-जोबन खसै, (रे) तऊ न मानै हार ।।
तैं जो रतन पायौ भलौ, (रे) जान्यौ साधि न साज ।।
प्रेम कथा अनुदिन सुनै, (रे) तऊ न उपजै लाज ।।
सदा सँघाती अपनौ, (रे) जिय कौ जीवन-प्रान ।
सु तैं बिसार्यौ सहज हीं, (रे) हरि, ईस्वर, भगवान ।।
बेद, पुरान, सुमृति सबैं, (रे) सुर-नर सेबत जाहि ।
महा मूढ़ अज्ञान मति, (रे) क्यौं न सँभारत ताहि ।।
खग-मृग-मीन-पतंग लौं, (रे) मैं सोधे सब ठौर ।
ज्रल-थल-जीव जिते तिते, (रे) कहौं कहौं लगि और ।।
प्रभु पूरन पावन सखा, (रे) प्राननि हूँ कौ नाथ ।
परम दयालु कृपालु है, (रे) जीवन जाकैं हाथ ।।
गर्भ-बास अति त्रास मैं, (रे) जहाँ न एकौ अंग ।
सुनि सठ, तेरौ प्रानपति, (रे) तहँउ न छाँड़र्यौ संग ।।
दिन-राती पोषत रह्यौ, (रे) जैसैं चोली पान ।
वा दुख तैं तोहि काढ़ि कै, (रे) लै दीनौ पय-पान ।।
जिन जड़ तैं चेतन कियौ, (रे) रचि गुन तत्त्व-बिधान ।।
चरन, चिकुल, कर, नख, दए, (रे) नयन, नासिका कान ।
असन, बसन बहु बिधि दए, (रे) औसर औसर आनि ।।
मातु-पिता-भैया मिले, (रे) नइ रुचि नइ पहिचानि ।
सजन कुटुँब परिजन बढ़े, (रे) सुत-दारा-धन-धाम ।।
महामूढ बिषयी भयौ, (रे) चित आकर्ष्यौ काम ।
खान-पान-परिधान मैं, (रे) जोबन गयौ सब बीति ।।
ज्यौं बिट पर-तिय-सँग बस्यौ, (रे) भोर भए भई भीति ।
जैसैं सुखहाँ तन बढ़यौ, (रे) तैसैं तनहिं अनंग ।।
धूम बढ़्यौ, लोचन खस्यौ, (रे) सखा न सूझ्यौ संग ।
जम जान्यौ, सब जग सुन्यौ, (रे) बाढ्यौ अजस अपार ।।
बीच न काहूँ तब कियौ, (जब) दूतनि दीन्ही मार ।
कहा जानै कैवाँ, मुवौ, (रे) ऐसैं कुमति, कुमीच ।।
हरि सौं हेत बिसारि कै, (रे) सुख चाहत है नीच !
जौ पै जिय लज्जा नहीं, (रे) कहा कहाँ सौ बार ?
एकहु आँक न हरि भजे, (रे) रे सठ, सूर गँवार ।।125।।
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