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राग देवगंधार
(96)
बिरथा जनम लियौ संसार।
करी कबहुँ न भक्ति हरी की, मारी जननी भार।।
जज्ञ, जप, तप, नाहि कीन्ह्यौ, अल्प मति बिस्तार।
प्रगट प्रभु, नहिं दूरि हैं, तू देखि नैन पसार।।
प्रबल माया ठग्यौ सब जग, जनम जूआ हार।
सूर हरि कौ सुजस गावौ, जाहि मिटि भव- भार ।।96।।
(मैंने संसार में व्यर्थ ही जन्म लिया। श्रीहरि की भक्ति तो कभी कही नहीं, (गर्भ में आकर) अपनी माता को (अपने) भार से व्यर्थ पीड़ा दी। यज्ञ, तप, आदि (पवित्र कर्म) तो किये नहीं, अपनी मन्द बुद्धि का ही विस्तार किया। प्रभु तो प्रत्यक्ष हैं (विश्व के रूप में वे ही प्रकट हैं), कहीं दूर नहीं हैं; आँख फैलाकर देख तो सही। (किंतु) माया बड़ी प्रबल है, उसने सारे संसार को ठग लिया है, इसी से (माया के) जुए में (सब लोग) जन्मरूपी धन हारते हैं। सूरदास जी अपने-आपसे कहते हैं कि श्रीहरि के सुयश का गान करो, जिससे संसार का भार दूर हो।
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