श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
6. जाम्बवती-मंगल
स्यमन्तक मणि- अत्यन्त प्रभावशाली सूर्यमणि, वह प्रसेन के लिए प्राणघातक बनी। वह सिंह के द्वारा मारा गया। सिंह उसे लेकर चला तो उसे भी मृत्यु ने मुख में रख लिया; किन्तु जाम्बवन्त के लिये- उन श्रीरघुनाथ के अनन्त भक्त के लिये मणि अशुभ नहीं हो सकती थी। सूर्यवंश शिरोमणि के सेवक के घर मणि आयी तो महामंगल लेकर ही आना था उसे। जाम्बवान उस दिन अपनी गुफा से घूमने निकले थे। सतयुग के उन दिव्यदेही को द्वापरान्त के छुद्र प्राणियों में कोई रुचि नहीं थी। वे कभी कदाचित एकान्त में ही निकलते थे गुफा से और घूम-घामकर भीतर चले जाते थे। उनकी गुफा भीतर बहुत विस्तृत थी। वहाँ पूरा प्रदेश ही था। केवल प्रकाश ही नहीं था, निर्झर था, फल-भार से लदा वन था और देवसदन के समान सुसज्जित दिव्य भवन था रीछपति का। गुफा तो वहाँ पहुँचने का केवल मार्ग थी। वहाँ जाम्बवान का पूरा परिवार सुखपूर्वक रहता था। अनेक दिनों से जाम्बवान कुछ चिन्तित रहने लगे थे। उनकी देवकन्या-सी कुमारी युवती हो गयी थी और उसके योग्य वर सोचकर भी दीख नहीं रहा था कहीं। देवता भोगपरायण हैं और दैत्य निसर्ग क्रूर- मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक को दोनों तुच्छ लगते थे। यद्यपि ब्रह्मलोक उनके पिता का लोक था और पाताल तक भी उनकी गति निर्वाध थी, किन्तु किसी लोक के अधिपति को भी कन्या दान करना उन्हें अभीष्ट नहीं था। 'कर्म लोक केवल धरा है। यहीं बार-बार निखिल लोकनियंता अवतार लेते हैं।' जाम्बवान देखा था श्रीराघवेन्द्र को और उन्हें जिन नेत्रों ने एक बार देख लिया, दूसरा कोई उसे कैसे जँच सकता है। जाम्बवान की कठिनाई उन्होंने स्वयं बढ़ा ली थी। श्रीरघुनाथ के स्वरूप, सौन्दर्य, पराक्रम, गुणगणगायन के व्यसनी थे वे। उन्हें अपने आराध्य के वर्णन के समय अपने तन-मन का स्मरण भी नहीं रहता था। उनकी कन्या ने शैशव से पिता के मुख से बार-बार यह वर्णन सुना और वे हृदयहारी उसके अन्तर में आसीन हो गये थे। वही- अब वही चाहिये उसे। वह उनकी दासी- दूसरे पुरुष की चर्चा भी वह सुनने को प्रस्तुत नहीं। 'वे सर्वज्ञ हैं, सर्वसमर्थ हैं, करुणावरुणालय हैं, भक्तवत्सल हैं, घट-घट वासी हैं।' यह सब पिता ने ही तो कहा है। जाम्बवती जानती है कि उनके पिता का असत्य स्पर्श नहीं करता, तब वे अन्तर्यामी क्या उनके हृदय की नहीं जानते? वे सर्वसमर्थ- वे अनन्त-दया-धाम, क्या उनको अपने सेवक की कन्या पर दया नहीं आवेगी? जाम्बवान क्या करें। उनके आराध्य मर्यादापुरुषोत्तम हैं और धरा पर तो वे त्रेता में थे। यह तो द्वापरान्त है। जाम्बवान की दुर्बलता यह है कि श्रीराम का वर्णन करते समय वे भूल ही जाते हैं कि अब द्वापरान्त है। वे श्रीअयोध्यानाथ वहाँ सिंहासनासीन हैं- यहीं तो सदा लगता है जाम्बवान को। यही तो कहा है उन्होंने सदा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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