श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
6. जाम्बवती-मंगल
सहजभाव से मणि देखने जाम्बवन्त बढ़े थे; किन्तु सिंह को लगा कि वे उसे छीनने आ रहे हैं। वह उत्तोजित होकर कूद पड़ा। उसे मार देना रीछपति के लिए अप्रयास सरल था। सिंह को मारकर मणि उठा ली उन्होंने और अपनी गुफा में लौट पड़े। उनके लिये मणि का कोई महत्त्व नहीं था। गुफा में आकर उनके परिवार के एक छोटे शिशु ने उस चमकीले पदार्थ को पाने के लिये हाथ उठाया तो जाम्बवान ने मणि उसे खेलने के लिये दे दी। शिशु को यह खिलौना इतना प्रिय लगा कि वह उसे साथ लिये फिरने लगा। मणि वह छोड़ना ही नहीं चाहता था। मणि भले वहाँ महत्त्वहीन हो गया हो, मणि का प्रभाव तो महत्त्वहीन नहीं हो गया था। मणि को ढूँढ़ते श्रीकृष्णचन्द्र गुफा में प्रविष्ट हुए। आगे बढ़ने पर पर्याप्त भीतर जाकर प्रकाश दिखलायी पड़ा और जब भीतर पहुँच गये, स्यमन्तक जैसा ज्योतिर्मय मणि क्या छिपा रहता है। वह रीछ-शिशु के करों में था- उपदेव जाति के रीछ-शिशु के करों में। वह शिशु मणि से खेल रहा था। बालक को भयभीत नहीं करना था। उससे मणि छीनकर उसे दुःखी भी नहीं करना था। श्रीकृष्ण समीप जाकर खड़े हो गये। बालक इस खिलौने से ऊबकर इसे छोड़ दे तो उठा लें, इतना ही चाहते थे वे; किन्तु बालक की धाय ने बालक के समीप एक अपिरिचित पुरुष को देखा तो डरकर चिल्ला पड़ी- 'दौड़ो! बचाओ! पता नहीं, कौन आ गया। शिशु को पकड़ने आया यह।' जाम्बवान दौड़ पड़े रोष में भरे, और आते ही उन्होंने उस अपरिचित पुरुष पर मुष्टि-प्रहार किया। श्रीकृष्णचन्द्र ने भी मुष्टि-प्रहार से ही उत्तर दिया। जाम्बवान भूल गये, किन्तु ये नीलसुन्दर तो भूलते नहीं। त्रेता में इन रीछाधिप ने एक दिन श्रीरघुनाथ जी से कहा था- 'मेरी द्वन्द्व-युद्ध की इच्छा लंका के युद्ध में भी अतृप्त ही रही। दशग्रीव भी मेरे आघात से मूर्च्छित हो गया।' 'मैं ही कभी तम्हारी यह इच्छा तृप्त कर दूँगा।' हँसकर राघवेन्द्र ने कह दिया था। मर्यादापुरुषोत्तम तो अपने सेवक से द्वन्द्व-युद्ध नहीं कर सकते थे। अब त्रेता में दिया वह वचन इस लीलापुरुषोत्तम रूप में सार्थक करना था। मुष्टि-प्रहार तड़ातड़ चलने लगा था। जाम्बवान भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र, दिव्यदेही, अतुलपराक्रम- उनका साधारण मुष्टि का घात भी कोई सह ले! उलटे वह भी प्रहार करे और वज्र-निष्ठुर प्रहार! जाम्बवान क्रोध में आ गये थे। पूरे बल से हुंकार करते हुए प्रहार करते रहे थे। लीलामय श्रीकृष्ण उनका आघात शरीर पर लेते थे और आघात करते थे। क्षण-क्षण जैसे वज्रपात हो रहा हो- ऐसा भयानक शब्द हो रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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