श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
65. रण-निमन्त्रण
दुर्योधन यहाँ से श्रीबलराम जी के यहाँ पहुँचा। उन्हें प्रणाम करके उसने युद्ध में सहायता की प्रार्थना की। 'अर्जुन! तुमने यह क्या बचपना किया। मैंने तो तुम्हें अवसर दिया था।' दुर्योधन के जाते ही हँसकर श्रीकृष्णचन्द्र ने सखा से कहा- 'मैं शस्त्रहीन युद्ध में तुम्हारे किस उपयोग में आऊँगा? तुम चाहो तो अब भी तुम्हें एक अक्षौहिणी सेना मिल सकती है और दुर्योधन को मिलने वाली सेना से यह हमारी सुरक्षित सेना श्रेष्ठ है। महासेनापति अनाधृष्ट इसका संचालन करते हैं।' 'केशव! अपनी इस माया से मुझे सम्मोहित मत करो। तुम्हारी माया के भय से ही मैं तुम्हारे इन चरणों की शरण आया हूँ।' अर्जुन ने दोनों चरण पकड़ लिये श्रीकृष्ण के- 'मैं द्वारिका सेना लेने नहीं आया। आप चाहें तो यह दूसरी सेना भी दुर्योधन को दे दें। पाण्डु पुत्रों को आपसे रहित विजय भी नहीं चाहिए। हम विजयी हों या पराजित, आपके इन पादपद्यों के साथ ही रहेंगे, यह मेरा ही नहीं, धर्मराज का भी दृढ़ निश्चय है।' 'अब तो तुमने मुझे ले ही लिया है।' श्रीद्वारिकाधीश ने मित्र के दोनों हाथ अपने हाथ में ले लिये और पूछा- 'तुम मुझसे युद्ध में कराना क्या चाहते हो?' 'अपने रथ का सारथ्य।' अर्जुन बिना किसी संकोच के कह दिया- 'तुम्हारे हाथ में अपने रथ की रश्मि देकर मैं निश्चित हो जाना चाहता हूँ कि हम पांडवों के भाग्य-संचालन का सूत्र तुमने अपने हाथ में ले लिया है और फिर जो कुछ भी होता हो, उसमें हम सबको परम प्रसन्नता होगी।' श्रीकृष्णचन्द्र खूब खुलकर हँसे- 'अच्छी बात। तुम जानते ही हो कि अश्वपरिचर्या और अश्व-संचालन में मेरी समता कर सकने वाला कदाचित ही प्राप्त हो।' तनिक रुककर श्रीद्वारिकाधीश ने फिर कहा- 'तुम यहाँ जिनसे भी चाहो, मिल लो। जो भी तुम्हारा साथ देना चाहेंगे, मैं उन्हें मना नहीं करूँगा।' 'मुझे और किसी से मिलना नहीं है। अर्जुन को शीघ्रता थी। उन्हें विराट नगर में युद्ध की पूर्व भूमिका सम्हालनी थी। द्वारिका से वे भली प्रकार संतुष्ट होकर विदा हुए। श्रीद्वारिकाधीश के चरणों में पहुँचकर कोई असंतुष्ट, अतृप्त रह जाय यह संभव नहीं है। दुर्योधन भी द्वारिका से पूर्ण संतुष्ट होकर ही विदा हुआ था। उसने श्रीकृष्ण को लगभग तटस्थ बना दिया था। श्रीबलराम से तटस्थ रहने का आश्वासन प्राप्त कर लिया था। दिग्विजयी प्रद्युम्न और अनिरुद्ध तथा श्रीकृष्ण के महारथी पुत्र-पौत्र युद्ध में आ नहीं रहे थे। अपने प्रचण्ड पराक्रम के लिए प्रसिद्ध नारायणी सेना की एक अक्षौहिणी उसे मिल गयी थी। हस्तिनापुर में मित्रों ने दुर्योधन की सफलता का स्वागत किया। केवल भीष्म पितामह ने सब सुनकर कहा- 'नारायण रहित नारायणी सेना?' और मौन रह गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज