श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
41. प्रीति-प्रतिमा
'सखि! ये श्रीद्वारिकाधीश तुम्हारे प्रेम का स्मरण करते ही विह्वल हो जाते हैं। वह प्रेम कैसा है, यह तो मैंने आज देखा। तुम्हें देखे बिना इनकी बात और इनकी स्थिति, इनकी विह्वता समझ में आ नहीं सकती थी।' श्रीरुक्मिणी जी ने समीप बैठकर करों में कर लेकर बड़े सम्मान से पूछा- 'यह प्रेम कैसे पाया जाता है, मुझ पर भी अनुग्रह करो।' आपके स्वामी प्रेम के अनन्त पयोधि हैं महारानी।' श्रीरुक्मिणी जी बहुत बिनती कर चुकीं कि ये श्रीवृषभानुनन्दिनी उन्हें महारानी न कहकर बहिन कहें, किन्तु ये संकोचमयी मानती ही नहीं हैं। इनके मुख से दूसरा सम्बोधन ही नहीं निकलता। ये 'आप' छोड़कर तुम तो रूठने पर भी नहीं बोल पाती हैं। 'आप उनकी पट्टमहिषी हैं, आपको मैं क्या बतलाऊँगी।' 'यह लोकोत्तर सौन्दर्य और यह शील, प्रेम की यह पराकाष्ठा और यह अभिमान गन्धशून्यता! महारानी रुक्मिणी विभोर कुछ कहने लगीं थी, किन्तु ललिता जी ने उनके चरण पकड़ लिये कि वे कुछ बोलें नहीं। उनकी सखी अपनी प्रशंसा सुनने में अत्यन्त असमर्थ है। इस समय उनकी स्तुति में कुछ कहा गया तो उनकी व्याकुलता उपचार से बाहर हो जायेगी। महारानी रुक्मिणी ने फिर कुछ नहीं पूछा। पूछने को कुछ था भी नहीं। श्रीकृष्ण प्रेम परवश हैं, यह वे भली प्रकार जानती हैं और विशुद्ध प्रेम की ही कोई प्रतिमा बने तो कैसी होगी, इसके दर्शन आज उन्हें प्रत्यक्ष हो गये। सच्चे मन से पूरे प्रेम और स्नेह से महारानी स्वयं श्रीराधा के सत्कार में लगी रहीं। सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि उनकी अल्प सेवा भी स्वीकार करने में श्रीराधा बहुत अधिक संकुचित हो रही थीं अतः अपनी प्रबल उत्काष्ठा को दबाकर उन्हें विदा करना पड़ा उनके शिविर में। अन्यथा महारानी तो चाहती थीं कि कम-से-कम जब तक यहाँ रहना है, वे इसी शिविर में रहें और उनकी समस्त परिचर्या स्वयं महारानी को करने का सौभाग्य प्राप्त हो। उन्हें सन्देह नहीं था कि श्रीराधा की सेवा कर पावें तो उनकी अपने स्वामी का बहुत अधिक प्रेम स्वतः प्राप्त हो जायेगा। श्रीराधा विदा हो गयीं तो रात्रि में महारानी अपने आराध्य की सेवा में अत्यधिक उल्लास लिये पहुँचीं। वे श्रीराधा के सौन्दर्य, शील, संकोच की चर्चा करेंगी और श्रीद्वारिकाधीश आज तन्मय होकर सुनेंगे। प्रसन्न होंगे और...... महारानी रुक्मिणी कुछ कहना भी चाहती थीं, यही स्मरण नहीं रहा। स्वामी के चरण लिये करों में और व्याकुल हो गयीं। 'आपके श्रीचरणों में ये फफोले? किसकी पुकार पर सन्तप्त भूमि में नंगे पैर आप आज दौड़ पड़े थे?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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