श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
41. प्रीति-प्रतिमा
'कुछ नहीं हुआ देवि! कहीं गया नहीं था।' श्रीकृष्णचन्द्र स्नेहपूर्वक कुछ हँसकर ही बोले- 'यह तो तुम्हारे ही तनिक प्रमाद से हो गया किन्तु कोई चिन्ता करने की बात नहीं है।' 'मेरे प्रमाद से?' महारानी ने अत्यन्त आश्चर्य से पूछा- 'मुझसे यह अपराध हुआ?' 'अपराध नहीं, केवल किंचित प्रमाद।' श्रीकृष्णचन्द्र ने प्रियतमा पत्नी का हाथ अपने हाथ में लिया- 'तुमने श्रीवृषभानुनन्दिनी को जो दूध पीने के लिए दिया वह ठीक शीतल नहीं हुआ था। तुम्हारे हाथ से दिया गया अतः उसे मेरा ही दिया समझकर वे पी गयीं।' 'मैं समझी नहीं स्वामी!' श्रीरुक्मिणी जी के नेत्र भर आये। उनके प्रमाद से उनके इन आराध्य चरणों में ये फफोले पड़े हैं? 'मेरे चरण उनके हृदय में सदा स्थिर निवास करते हैं।' श्रीकृष्णचन्द्र ने बात स्पष्ट की। वह उष्ण दुग्ध श्रीकीर्तिकुमारी के लिए असह्य था। उसका ताप इन चरणों पर भी तो पड़ता। 'ओह!' महारानी रुक्मिणी जी उन चरणों पर ही मस्तक रखकर फूटकर रो पड़ीं। आज वे इस समय समझ सकीं कि 'एक प्राण दो देह' का क्या अर्थ होता है। उनके आराध्य और उनकी वृषभानुनन्दिनी में कितना अभेद है। इन्हें वे उनके शील संकोच का वर्णन सुनाने की इच्छा कर रही थीं? श्रीराधा तो व्रजांगनाओं की मुकुटमणि किन्तु महारानी रुक्मिणी को तो लगा कि व्रज के शिविर में जो भी आये हैं- स्त्री-पुरुष, युवा-वृद्ध सब विशुद्ध प्रेम-प्रतिमा है। त्रिभुवन में कहीं उनकी तुलना नहीं।' व्रजजनों के चरण-स्मरण से पुरुष को श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति होती है देवि!' देवर्षि नारद की यह बात अब अन्तःकरण में गूँजती ही रहती है। व्रजजनों के प्रेम की स्पर्धा कहाँ, उनकी सेवा मिलना भी बड़ा सौभाग्य, किन्तु वह भी कहाँ मिलती है। उस शिविर में जाने पर सब सेवा ही करना चाहते हैं। सब संकोच की मूर्ति हैं। मैया यशोदा के ही चरणों में महारानी कुछ काल बैठ पाती हैं, किन्तु वहाँ भी अपार स्नेह पाया जा सकता है, सेवा का अवसर वहाँ भी नहीं है। वे महामहिमामयी तो अपनी पुत्री के समान अंक में ही बैठाये रखना चाहती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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