श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
40. व्रजजन-मिलन
'तुम प्रसन्न रहो। जहाँ रहो, आनन्द से रहो!' गोपियों का एक ही स्वर- 'तुम्हारे ये श्रीचरण हमारे हृदय में बने रहें। इनमें हमारी प्रीति कभी कम न हो, इतना ही हम चाहती हैं।' श्रीकृष्ण गोपियों से कभी दूर हुए हैं? उन प्रेम की पावन प्रतिमाओं के हृदय में उनके श्रीचरण प्रेम-पाश से नित्य आवद्ध। इस नित्य-शाश्वत मिलन में वियोग केवल रसोद्दीपक बनकर ही तो आता है। बाधा या व्याघात कहाँ है इस प्रेमसागर में। सखाओं को लगता ही नहीं कि उनके दाऊ-कन्हाई उनसे कभी पृथक भी हुए हैं। वे सदा के साथी- द्वारिका के समाज में, ऋषियों और राजाओं के मध्य उन्हें संकोच होता है; किन्तु उनके ये दोनों सखा तो उनके मध्य ही रहते हैं। माता रोहिणी मैया को और गोप-वृद्धाओं को द्वारिका के शिविर के अन्तःपुर में ले गयीं। देवकी जी, तथा वसुदेव जी की अन्य पत्नियों से वे मिलीं। उन्हें श्रीबलराम - श्रीकृष्ण रानियों ने- पुत्रवधुओं ने प्रणाम किया और सबको वे आशीर्वाद के साथ वस्त्र-आभूषण दें आयीं। द्वारिका की महारानियों के लिए भी अद्भुत अमूल्य लगें ऐसे उपहार और व्रज का स्नेहोपहार तो सदा ही अमूल्य है। श्रीद्वारिकाधीश सदा व्रज की, व्रजवासियों की, गोपियों की प्रशंसा करते रहे हैं। गोपियों के सौन्दर्य की, प्रेम की, शील की तो स्तुति करते नहीं थकते। कैसी होंगी गोपियाँ? कैसी होंगी उनकी अधीश्वरी श्रीराधा? महारानियों के मन में यह उत्कण्ठा सदा रही है। महारानी रुक्मिणी जी को लेकर सब गयीं व्रज के शिविर में। मैया यशोदा के उपहारों ने पहिले ही चकित कर दिया था और व्रज की ये सौन्दर्य मूर्तियाँ- श्रीराधा शील की- विनय की मूर्ति। वे अत्यन्त विनय से, सम्मान देने उठ गयी थीं। उनका सहजशील- महारानियों को रुक्मिणी जी तथा सत्यभामा जी को भी लगा कि वे यहाँ किसी गोपी की दासी के समकक्ष भी तो नहीं लगतीं। साम्राज्ञी- महासाम्राज्ञी श्रीराधा- उनके सम्मुख तो लगता है कि अपनी कहीं सत्ता ही नहीं और वे इतना सम्मान देती हैं। 'ये द्वारिकाधीश व्रज को छोड़कर द्वारिका में हैं, आश्चर्य तो यही है।' महारानियाँ सत्कृत होकर व्रज के शिविर में लौटीं तो उन सबका हृदय इस ऊहापोह में था। उनके स्वामी व्रज की प्रशंसा में विभोर होते हैं, यह तो अब सबको स्वाभाविक लगता था। व्रज और द्वारिका के शिविर नाम मात्रा को दो रह गये थे। दोनों ओर सीमातीत प्रीति थी। दोनों ओर एक दूसरे को अधिकाधिक सत्कार देने की उत्कण्ठा थी। नित्य नया स्वागत, नित्य नवीन उल्लास, नित्य नवीन मिलन, सुख- आनन्द का पारावार उमड़ पड़ा था प्रत्येक के लिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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