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श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण की गीता और दर्शनशास्त्रों का समन्वय
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदंत्यविपाश्चित: । 2।42
इस एक ही श्लोक में प्रथम चरण से निरूक्तशास्त्रि, ‘वेदवाद’ से कर्मकाण्ड और तृतीय चरण से चारवाक और लोकायतिक अथवा योगाचार्य नामक नास्तिकों के सिद्धान्तों का बोध होता है। इस श्लोदक का प्रथम चरण निरूक्त वर्णित निम्नलिखित मन्त्र से मिलता है- उत त्वं सख्ये स्थिरपीतमाहु: ‘वेदवाद’ में पूर्व मीमांसा के तत्त्वों का भी समावेश हो जाता है। इस प्रकार गीता में सर्व दर्शनों का सार आ जाता है। यही नहीं, वैदिक तत्त्व भी सुन्दर रीति पर वर्णन किये गये हैं। जैसे- यह ऋग्वेद का मन्त्र है, जिसका अभिप्राय यह है कि जो केवल अपने लिये पकाता है और स्वाश्रितों को छोड़कर खाता है वह केवलाद्य और केवल पापी अर्थात वह अकेला ही पापी हो जाता है यानी सब पाप उसको ही लगता है। इस तत्त्व को गीता 2।13 में सुन्दर रीति से वर्णन किया है। यज्ञशिष्टाशिन: संतो मुच्यंते सर्वकिल्बिषै: । वेदों की त्रैगुण्य विषयता को 2।13 में स्पष्ट किया गया है। गीता में योग दर्शन के तत्त्वों को लिये सम्पूर्ण षष्ठाध्याय, सांख्य दर्शन के लिये चौदहवाँ अध्याय, वैशेषिक के लिये तेरहवाँ अध्याय दिया गया है। शेष तो सब सम्मिश्रण है। जिस प्रकार शिल्पीद छोटे-मोटे पत्थरों को उनके आकार-प्रकार को देखकर, भवन की सुन्दरता की दृष्टि से लगाता जाता है इसी प्रकार गीता की शेष अध्यायों की गति समझिये। अठारहवाँ अध्याय इस निमित्त भेंट समझिये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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