आओ आली! देखो आज द्वारे नन्दरायजू के,
चतुर बदन वेद ध्वनि है अलावतो ।
गणनको ईश जो महेशको दुलारो प्यारो,
हाथी मुखवारो हाथ वीणा लै बजावतो ।।
किन्नर कुबेर-वर ताली दै सु-गावते,
बजावते मृदंग अंग अंग सरसावतो ।
ओढ़े मृगछाल ओ त्रिलोचन विशाल जटा-जूट,
विधि भाल सिंगी नाद है बजावतो ।।
केते इन्द्र, रुद्र, विश्व, अश्विनी-कुमार, वसु,
केते गन्धर्व, यक्ष, द्वार खड़े ध्यावते ।
केते सिद्ध, साधू, यती, सती, हठी, तपी केते,
एक लव लाय मनमोहन चितावते ।।
देवल, असित और व्यास, भृगु नारद से,
ऋषी, महाऋषी, मुनी, गुनी गावते ।
गोकुल गोलोक हूँ ते बन्यो है आज,
देवन विमान चढ़ि फूल बरसावते ।।
झूम-झूम घूम-घूम भूमि औ आकाश पर,
घोर घन गाज आज नौबत बजाते हैं ।
नाचत चकोर मोर कोयल अलाते झंग,
झिंगुर बजाते चारि चातक लगाते हैं ।।
कुंज-कुंज गूँज रहे मधूप मधुर पुंज,
मोहन के आगमकी खबर सुनाते हैं ।
महामोद माते लहराते हरे हरे पेड़,
फूल सबै फूल फूल फूले न समाते हैं ।।
कोटि ब्रह्माण्ड जासों प्रगत तिथि लै होय,
रहत अलेप जड़ चेतन समायो है।
नित्य अव्यक्त सत्य अचल अलेप आदि,
अखिल अनंत अज जाहि वेद गायो है।।
सत चित नानँद स्वयंभू अजै अनादि,
अलख अरूप रूप धारन चितायो है।
करुणानिधान दयासिन्धु दीनबन्धु आज,
पारो मेह-नातो नन्द-नन्दन कहायो है।।
कोटि अटूट भँडार भरे पुनि,
देत न हारत, नाहिं घटाहिं ।
पंक्षी पतंग पशू नर नाग
सुरासुर को प्रतिपाल कहाहीं ।।
सारि त्रिलोकी को देत हैं जो सदा
रंच न दोष अदोष चिताहीं ।
दासन दुख निवारण को दधि-
दूध चुराय-चुराय के खाहीं ।।
वायु बह जेहि के डरते,
चढ़के उतरे सद सिन्धु अथाहीं ।
जा डरते शशि-सूर्य चलें,
नभ-मंडल भूमि पतार घुमाहीं ।।
आवन जावन जा डर तें,
त्रैलोक्य बँध्यो ब्रह्माण्ड थिराहीं ।।
प्रेमकी डोरी बँधे उअखली,
संग मात यशोमति रोय डराहीं ।।
रूप न रंग न रेख न भेख,
अनादि अनंत अलेख ना ठाहीं ।
नैननते तनते मनते बुधिते
पर प्रानन-प्राण कहाहीं ।।
जो जड़ चेतन में भरपूरि
रह्यो परिपूरण ब्रह्म लखाहीं ।
सो मनमोहनि मूरति धार
बजात खड़ो मुरली ब्रजमाहीं ।।
शेष, गणेश, महेश, सुरेश सदा
लव लायके ध्यावत जाहीं ।
कोटि मुनी, सिध, साधु, जती,
सती, कोटि तपेश्वर जाहि चिताहीं ।।
ब्रह्मकुमारसे हार थके 'दलजीत'
न आदि न अंतहि पाहीं ।
दासन हेतु सो दीनदयाल,
फिरै यमुना तट धेनु चराहीं ।।