श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण की नित्य-लीला
नित्य-लीला के इस गूढ़ रहस्य को न जानने और न सोचने में हम बड़ी भूल करते हैं। हम सोचते हैं कि बहुतों ने श्रीकृष्ण को या श्रीभगवान को जान लिया या प्राप्त कर लिया, इससे उनके जानने और प्राप्त करने का अन्त हो गया। अब वे चुपचाप हैं; महानिर्वाण की अव्यक्त महासमाधि हो गयी है; सब शेष है, निश्चित, निरूद्वेग और निश्रचेषताओं में सब निस्तब्ध हैं, न गति है, न वैचित्र्य है, न हँसना-रोना है, न प्रकाश और अन्धकार है, न उल्लास और अवसाद है और न मिलन एवं विरह है। सब चुप हैं, एकदम चुप हैं। बहुततेरे लोग सोचते हैं कि धर्मसाधन की मानो यही अन्तिम सीढ़ी हे। इसी का नाम ब्रह्मादर्शन या भगवत्प्राप्ति है, परन्तु यह बात ठीक नहीं है। यह एक भूल है, गहरी भूल है। इसी भूल का भूत चढे़ रहने के कारण आज भी बहुत-से लोग धर्म और ईश्वर के नाम पर जीवन की शून्यता(Negation of life) की ओर जा रहे हैं। उन लोगों से पुकारकर कह दो कि ʻइस मार्ग से न जाओ, इस मार्ग से न जाओ।ʼ जीवन की शून्यता से भगवान नहीं है, श्रीभगवान को खोजो जीवन की असीमता में और पूर्णता में ! भगवत्प्राप्ति या भगवतर्शन जीवन का अन्त नहीं है, यह तो सत्य जीवन का प्रारम्भ मात्र है। भगवत्प्राप्ति या भगवदर्शन लय नहीं है, मृत्यु नहीं है, वह है नव-जन—लाभ, ससीम में मरकर असीम में जन्म ग्रहण करना। इस समय हम जिस जीवन में जी रहे हैं और जिसको जीवन बतला रहे हैं वह सत्य जीवन नहीं है, वह तो सत्य जीवन की एक छाया और आभास है। नित्य का दर्शन, नित्य का बोध और उस दर्शन एवं बोध के द्वारा संचालित होकर नित्य की सेवा में आत्म समर्पण, बस यही जीवन सत्य जीवन है। इसीका नाम नित्य-लीला में प्रवेश है। इसी को निर्वासित प्रवासी का पुन: अपने घर लौट आना कहते हैं। श्रीकृष्ण का प्रकाश त्रिविध है। तात्विक दृष्टि से देखने पर यह त्रिविध प्रकाश युगपत सत्य या एक ही साथ सत्य है परन्तु यह धारण बहुत ही कठिन है, अतएव यहाँ उसकी आलोचना आवश्यक नहीं। इस त्रिविध प्रकाश में श्रीवृन्दावन ही सर्वोत्तम है। साधारणत: पाँच प्रकार से श्रीकृष्ण को अथवा भगवान को प्राप्त किया जाता है— शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर। इनमें शान्त भाव सबकी जड़ है, मकान के नींव की भाँति। प्राचीन लोगों का कथन है ʻकृष्णनिष्ठाʼ और उसके अवश्यभावी फलस्वरूप ʻतृष्णात्यागʼ (प्रापांचिक विषयों की आकाड्क्षाका सर्वथा त्याग) शान्त या शान्तभाव के निषेधात्मक अंश (negative aspect) की अभिज्ञता का आश्रय लेकर कहा करते हैं कि यही अन्त है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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