श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण की नित्य-लीला
आनन्द ही मूल है। परन्तु सच्चिदानन्द अविच्छेद्य परम तत्व है। यही सच्चिदानन्द की संक्षिप्त व्याख्या है। श्रीकृष्ण ही वह सच्च्िनानन्द परब्रह्म हैं। श्रीकृष्ण पधारे, उन्होंने अपनी नित्य-लीला को प्रंपच में प्रकट किया। नित्य के प्राकट्य नाम ही लीला है। The infinite playing in the finite. लीला हुई और अब तक भी हो रही है। अब प्रश्न यह है कि लीला का साक्षी कौन है ? इस लीला को किसने जाना ?Whose Consciousness is the testimony thereof. इसके उत्तर में निर्भयता के साथ कह जा सकता है कि इस लीला को सम्पूर्ण और सम्यक रूप से न कोई जान सका है और न जा सकेगा। जिसकी जितनी शक्ति या अधिकार है व उतना ही जान सका है या जानेगा। लीलामय अनन्त हैं और लीला भी अनन्त है। अनन्त का जब अन्त नहीं है तब उस अनन्त को जानने का भी अन्त कैसे हो सकता है ? अनन्त सब कुछ कर सकता है। उसकी इच्छा अबाध है। उसकी इच्छा पर कोई भी एक शब्द भी नहीं कह सकता। वह भी यदि अपनी लीला को कभी आप जानना चाहे, सम्पूर्ण और सम्यक-रूप से जानना चाहे तो वैसा नहीं कर सकता। यदि कहीं अनन्त का अन्त है तो इसी बात में है कि वह अपने-आप भी अपने को पूरी तौर पर नहीं जान सकता। यह बात सत्य है, भारत के लीलावादी भक्तों ने इसका प्रत्यक्ष किया है। उनका अन्वेषण सफल हुआ, उन्होंने अन्त देखा। कहाँ देखा ? नवद्वीप में। क्या देखा ? यही देखा कि अनन्त अपने प्रेम में आप ही पागल है, अपने प्रति आप ही ऋणी है, अपने ही नाम पर आप मतवाला हो रहा है और अपने रूप पर आप ही अपनी सुधि भूल रहा है। इसी का नाम अनन्त का अन्त है। श्रीकृष्ण पधारे, उन्होंने लीला की। श्रीकृष्ण के प्रति जिनकी अप्रीति हुई, वे आत्मविस्मृत और आत्मघाती थे। कारण, श्रीकृष्ण आत्मा हैं, आत्मा के भी आत्मा हैं। उन लोगों का ध्वंसा हो गया। अवश्य ही ऐकान्तिक ध्वंस (eternal demnation) नहीं हुआ, परन्तु आपादृष्टि से उनका ध्वंस हो गया। जिन लोगों ने अपनी-अपनी शक्ति और अधिकार के अनुसार श्रीकृष्ण और उनकी लीला को किंचित जानकर प्रेम प्राप्त किया, उनका भी इसे जानने और प्राप्त करने का शेष हो गया हो, ऐसा नहीं है। उनमें से बहुतों के जानने और प्राप्त किया था, इस बार और भी कुछ जाना और प्राप्त किया। परन्तु किसी के भी जानने और पाने का अन्त नहीं हुआ। वे अनन्त काल तक जानते और पाते रहेंगे। हर समय वे नये ढंग से इस चिर-नवीन श्रीकृष्ण को और उसकी नित-नयी लीला के रहस्य जानते और पाते रहेंगे। न लीला का अन्त है और न जानने, पाने एवं बनने का अन्त है। ʻपूर्णस्यपूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यतेʼ इसी का नाम अनन्त जीवन और नित्य-लीला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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