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इससे भी यह बात समझ में आती है कि भगवान का शरीर लौकिक पन्चभूतों से बना हुआ नहीं था। वह तो उनका खास संकल्प है; दिव्य प्रकृतियों से बना है, पाप-पुण्य से रहित होने के कारण अनामय अर्थात रोग से रहित एवं विशुद्ध है। विज्ञानानन्दघन परमात्मा के सगुणरूप में प्रकट होने के कारण ही उस रूप को आनन्दमय कहा है। सम्पूर्ण अनन्त आनन्द ही मूर्तिमान होकर प्रकट हो गया है, या यों समझिये कि साक्षात प्रेम ही दिव्य मूर्ति धारण कर प्रकट हो गया है। इसी से जो उस आनन्द और प्रेमार्णव श्यामसुन्दर दिव्य शरीर का तत्त्व जान लेता है वह प्रेम में मुगध हो जाता है; आनन्दमय बन जाता है। | इससे भी यह बात समझ में आती है कि भगवान का शरीर लौकिक पन्चभूतों से बना हुआ नहीं था। वह तो उनका खास संकल्प है; दिव्य प्रकृतियों से बना है, पाप-पुण्य से रहित होने के कारण अनामय अर्थात रोग से रहित एवं विशुद्ध है। विज्ञानानन्दघन परमात्मा के सगुणरूप में प्रकट होने के कारण ही उस रूप को आनन्दमय कहा है। सम्पूर्ण अनन्त आनन्द ही मूर्तिमान होकर प्रकट हो गया है, या यों समझिये कि साक्षात प्रेम ही दिव्य मूर्ति धारण कर प्रकट हो गया है। इसी से जो उस आनन्द और प्रेमार्णव श्यामसुन्दर दिव्य शरीर का तत्त्व जान लेता है वह प्रेम में मुगध हो जाता है; आनन्दमय बन जाता है। | ||
− | प्रेम और आनन्द वास्तव में एक ही चीज है, क्योंकि प्रेम से ही आनन्द होता है। प्रकृति के सम्बन्ध बिना मनुष्य की चर्मदृष्टि से वे दृष्टिगोचर नहीं हो सकते। इसीलिये परमेश्वर अपनी प्रकृति के शुद्ध सत्त्व को साथ लिये हुए प्रकट होते हैं अर्थात् जिन दिव्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि का योगी लोगों को अनुभव होता है | + | प्रेम और आनन्द वास्तव में एक ही चीज है, क्योंकि प्रेम से ही आनन्द होता है। प्रकृति के सम्बन्ध बिना मनुष्य की चर्मदृष्टि से वे दृष्टिगोचर नहीं हो सकते। इसीलिये परमेश्वर अपनी प्रकृति के शुद्ध सत्त्व को साथ लिये हुए प्रकट होते हैं अर्थात् जिन दिव्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि का योगी लोगों को अनुभव होता है उन्हीं दिव्य धातुओं से सम्बन्ध किये हुए भगवान प्रकट होते हैं; भक्तों पर अनुग्रह कर वे विज्ञानानन्दघन परमात्मा जब अपने भक्तों को दर्शन देकर उनसे वार्तालाप करते हैं, तब अपनी लीला से उपर्युक्त दिव्य तन्मात्राओं को स्वाधीन करके ही वे प्रकट हुआ करते हैं, क्योंकि नेत्र रूप को देख सकता है, अतएव भगवान को रूप वाला बनना पड़ता है, त्वचा स्पर्श को विषय करती है, अतएव भगवान को स्पर्श वाला बनना पड़ता है, नासिका गन्ध को विषय करती है, अतएव भगवान को दिव्य गन्धमय वपु धारण करना पड़ता है। इसी प्रकार मन और बुद्धि माया का कार्य से माया से सम्मिलित वस्तु को ही चिन्तन करने और समझने में समर्थ है। इसलिये निराकार सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन परमात्मा प्रकृति के गुणों सहित अपने भक्तों को विशेष ज्ञान कराने के लिये साकार होकर प्रकट होते हैं, प्रकृति के सहित उस शुद्ध सच्चिदानन्दनघन परमात्मा के प्रकट होने का तत्त्व सबकी समझ में नहीं आता। |
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01:02, 28 अप्रॅल 2018 के समय का अवतरण
श्रीकृष्णांक
जन्म कर्म च मे दिव्यम
श्रीमद्भागवत[1]में ब्रह्माजी कहते हैं- हे देव ! आपके इस दिव्य प्रकट देह की महिमा को भी कोई नहीं जान सकता, जिसकी रचना पन्चभूतों से न होकर मुझ पर अनुग्रह करने के लिये अपने भक्तों की इच्छा के अनुसार ही हुई हैं। फिर आपके उस साक्षात आत्मसुखानुभव अर्थात् विज्ञानानन्दघन स्वरूप को तो हम लोग समाधि के द्वारा भी नहीं जान सकते। इससे भी यह बात समझ में आती है कि भगवान का शरीर लौकिक पन्चभूतों से बना हुआ नहीं था। वह तो उनका खास संकल्प है; दिव्य प्रकृतियों से बना है, पाप-पुण्य से रहित होने के कारण अनामय अर्थात रोग से रहित एवं विशुद्ध है। विज्ञानानन्दघन परमात्मा के सगुणरूप में प्रकट होने के कारण ही उस रूप को आनन्दमय कहा है। सम्पूर्ण अनन्त आनन्द ही मूर्तिमान होकर प्रकट हो गया है, या यों समझिये कि साक्षात प्रेम ही दिव्य मूर्ति धारण कर प्रकट हो गया है। इसी से जो उस आनन्द और प्रेमार्णव श्यामसुन्दर दिव्य शरीर का तत्त्व जान लेता है वह प्रेम में मुगध हो जाता है; आनन्दमय बन जाता है। प्रेम और आनन्द वास्तव में एक ही चीज है, क्योंकि प्रेम से ही आनन्द होता है। प्रकृति के सम्बन्ध बिना मनुष्य की चर्मदृष्टि से वे दृष्टिगोचर नहीं हो सकते। इसीलिये परमेश्वर अपनी प्रकृति के शुद्ध सत्त्व को साथ लिये हुए प्रकट होते हैं अर्थात् जिन दिव्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि का योगी लोगों को अनुभव होता है उन्हीं दिव्य धातुओं से सम्बन्ध किये हुए भगवान प्रकट होते हैं; भक्तों पर अनुग्रह कर वे विज्ञानानन्दघन परमात्मा जब अपने भक्तों को दर्शन देकर उनसे वार्तालाप करते हैं, तब अपनी लीला से उपर्युक्त दिव्य तन्मात्राओं को स्वाधीन करके ही वे प्रकट हुआ करते हैं, क्योंकि नेत्र रूप को देख सकता है, अतएव भगवान को रूप वाला बनना पड़ता है, त्वचा स्पर्श को विषय करती है, अतएव भगवान को स्पर्श वाला बनना पड़ता है, नासिका गन्ध को विषय करती है, अतएव भगवान को दिव्य गन्धमय वपु धारण करना पड़ता है। इसी प्रकार मन और बुद्धि माया का कार्य से माया से सम्मिलित वस्तु को ही चिन्तन करने और समझने में समर्थ है। इसलिये निराकार सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन परमात्मा प्रकृति के गुणों सहित अपने भक्तों को विशेष ज्ञान कराने के लिये साकार होकर प्रकट होते हैं, प्रकृति के सहित उस शुद्ध सच्चिदानन्दनघन परमात्मा के प्रकट होने का तत्त्व सबकी समझ में नहीं आता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10।14।2