श्रीकृष्णांक
वेणु-गीत
अध्याय से तक (प्रमाण) स्नेह का वर्णन है, अध्याय से तक (प्रमेय) आसक्ति का, अध्याय 19 से 25 तक (साधन) व्ययन का और अन्त में (फल) तमन्यता का निरूपण है। ऊपर लिखे अनुसार वेणु-गीता आसक्ति यानी प्रमेय प्रकरण के अन्तिक अध्याय में है। श्रीव्रजभक्तों की प्रभु में आसक्ति पूर्ण रूप से सिद्ध हो चुकी है। यहाँ वही बतलाया गया है। इसी बाहरी प्रकाश के लिये भगवान ने वंशी बजायी। इससे पूर्व के अध्याय में शरद्-ऋतु का प्रधान है। इसी आसक्ति को सुस्पष्ट करने के लिये- उसका बहिरुद्रम करने के लिये श्रीशुकदेवजी यहाँ भगवान के चरित्र वर्णन करते हैं। सारांश यह कि सम्पूर्ण गीता का मुख्य विषय गोपियों की आसक्तिका प्रकटीकरण है। श्रीवेणु-गीता इतना अधिक आकर्षक और सुन्दर है कि भारत वर्ष के कवियों पर उसका बडा़ भारी प्रभाव पडा़ है। हिन्दी, मराठी और गुजराती के कवियों ने मोहन की इन मधुर मुरली पर न जाने कितने काव्य लिखे हैं। इन भाषाओं के साहित्य में जो मधुरिमा आयी है, उसका मूल यही वेणु-गीता है। यदि भागवत में से रस- सिधान शायद ही कोई दूसरा प्रकरण को छोड़कर शायद ही कोई दुसरा प्रकरण मिले। भक्ति मार्ग का अत्युत्तम सिद्धान्त जैसा इस गीता में गूँथा गया है। ऐसा शायद ही कहीं हो। इसमें भगवान स्वयं अपने शब्द (संगीत) द्वारा चराचर सृष्टि को किस प्रकार तल्लीन करते हैं, यह दिखालाने के साथ ही संगीत का महत्त्व भी बतलाया गया है। जगत के सम्पूर्ण साहित्य में किसी न किसी प्रकार से संगीत के प्रभाव का वर्णन है। ग्रीक साहित्य व्तचीमदे में का वर्णन है वह संगीत के प्रभाव से चराचर जगत को हिला देता, वायु के वेग का रोकता और पर्वतों को गति दे सकता था मिल्टन अपने ‘पेरेडाइज लॉस्ट’ में कहता है कि जब ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की, तब उसने पहले बिखरे हुए महाभूतों का संगीत के द्वारा एकत्र किया, फिर सृष्टि रची। ड्रायडन इसी बात को अपने‘ सेन्ट असीलिय’ की प्रार्थना के गीत में दिखलाता है, वह कहता है कि संगीत से है, वैसे ही उसका लय भी संगीत से है, वैसे ही उसका लय भी संगीत के शक्ति के अधीन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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