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श्रीकृष्णांक
परात्पर श्रीकृष्णावतार का प्रयोजनविमर्श
दुष्टों का नाश- यहाँ पर यह विचार उठता है इत्यादि वेदान्त वाक्य बतलाते हैं कि परमात्मा के संकल्प से ही सृष्टि की रक्षा और प्रलय होता है। तब दुष्टों के दमन के लिये भगवान अवतार क्यों लेंगे ? क्या उनकी इच्छा मात्र से दुष्ट-दमन नहीं हो सकता ? परन्तु दुष्टों का नाश जैसा प्रभु को अपेक्षित है, वैसा अवतार धारण किये बिना नहीं हो सकता। कारण कि अवतार धारण करने पर प्रभु के हाथों जिनका वध होता है वे सब प्रभु के धाम को प्राप्त होते हैं इसी से, ‘विनाशाय’ कहा, ‘नाशाय’ नहीं कहा। विनाश शब्द से आत्यन्तिक नाश अर्थात संसार का सदा का उच्छेद विवक्षित है और यह प्रभु के अवतार बिना सम्भव नहीं। धर्म संस्थापन- यहाँ पर यह जान लेना परमोचित है कि एक श्री कृष्ण प्रभु आराध्या हैं और समस्त कर्म उनके आराधन स्वरूप हैं। कोई मनुष्य किसी से जाकर यह कहे कि तुम्हारे प्रिय मित्र अथवा कोई मान्य पुरुष आये हैं, तुम उनके लिये रसोई बनवाओ। ऐसा सुनने पर सबसे प्रथम वह उनको देखना चाहता है और यदि कहे अनुसार दर्शन पा जाता है तो बड़े ही प्रेम से पाकादि की तैयारी कराता है, यदि दर्शन में ही सन्देह हो जाता है तो आगे का कार्य वहीं रूक जाता है। इसी तरह प्रभु श्री कृष्ण चन्द्र के दर्शन बिना उनके आराधन रूप कर्म में प्रवृति नहीं हो सकती,जब दर्शन-प्राप्ति हो जाती है तो आराधन-कर्म में जो प्रवृति होती है, फिर उसको कोई भी नहीं रोक सकता, प्रभु श्री कृष्ण चन्द्र अपने श्री विग्रह का अद्भुत चमत्कार दिखा कर अपने आराधन कर्म में प्रवृत करने के लिये ही श्री अवतार धारण करते हैं। इस प्रकार आनन्दघन नन्दनन्दन का अवतार अनन्य प्रेमियों को अनेक विध लीला पुस्सर ललित माधुर्य छटा का आस्वादन कराने वाला, पूर्व सुकृत मध्य दुष्कृत ऐसे पुरुषों को स्वधाम प्रद तथा अत्यन्त विमूढ़ों को धर्म शास्त्र पर आरूढ़ कराने वाला होता है। प्रभु के श्री विग्रह की माधुर्य-छटा में अनुरक्त गोपिकाओं का मन उद्धवजी अपने योग के उपदेश से विचलित नहीं कर सके किन्तु वे स्वयं पे्रम में मग्न होकर गोपियों को बार-बार दण्डवत करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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