श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-गीतावली
ऐसी ही गोपी की बातें सुनिये- तोहि स्याम की सपथ जसोदा आइ देखु गृह मेरे । गोपी के मानसिक भावों का गोस्वामीजी ने जिस सहृदयता से चित्रण किया हैं, उसकी जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी हैं। उसकी खीज, उसका दुःख, उसका भय और प्रेम, उसके हृदय का क्षोभ और रोष, उसका डराना और धमकाना-इस पद्य के शब्दों का विन्यास जिस स्वारस्य के साथ व्यजित कर रहा है, उसका रस आस्वादन कर कौन हृदय मुग्ध न होगा। जो कुछ गोपी कह रही है, ऐसे अवसरों पर ऐसी ही बातें तो सुनी जाती हैं ! पद्य पढ़ते समय उस समय का चित्र आँखों के सामने खिंच जाता है, और ज्ञात होने लगता हैं कि उसके एक-एक वाक्य मन पर प्रभाव डाल-डालकर उसको प्रभावित कर रहे हैं। कविकर्म यही है, ऐसी ही कविता का नाम कविता है। जो कविता अन्धकार में रखती है, जिसके भाव प्रकाश में आने से संकुचित होते हैं, न तो वह कविता है और न ही रचने वाला कवि। जो सत्य है, हृदयंगम हो सकता है, उससे मुँह फेरकर अकल्पनीय को कल्पना का रूप देना वातुलता है। माखन-चोर, चोर ही नहीं थे, वचना-रचना-चतुर भी थे। उनमें चंचलता ही नहीं थी, बात गढ़ने की भी शक्ति थी। जब गोपियों ने उलाहनों का ताँता बाँध दिया, तो यशोदा जी कब तक बातें टालतीं, कब तक खरी-खोटी सुनती, एक दिन दोबारा-तिबारा उलाहना सुनने पर बिगड़ खड़ी हुई। नन्दलाल ने रंग बिगड़ा देखकर अपना रंग जमाने की ठानी, ऐसी बातें गढ़ी कि यशोदा जी मुँह देखती ही रह गयीं। गोपी बेचारी के तो छक्के छूट गये, मुँह में आयी बात भी वह न कह सकी, लाज के मारे अपना ही मुँह छिपाने लगी, लाला की बातें सुनिये- मोकहँ झूठेहिं दोख लगावहिं । देखिये, कैसी भोली-भाली बातें हैं, साथ ही इनमें कितनी मधुरता है। बातें गढ़ी हैं, पर उनमें से सरलता टपकी पड़ती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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