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<poem style="text-align:center">'''अजोअपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोअपि सन ।''' | <poem style="text-align:center">'''अजोअपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोअपि सन ।''' | ||
'''प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 4।6</ref>'''</poem> | '''प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 4।6</ref>'''</poem> | ||
− | मैं अज अर्थात जन्म रहित, अव्यय अर्थात अविनाशी और भूतों का ईश्वर अर्थात भूतों के बाहर-भीतर स्थित होकर तथा उन पर शासन करने वाला होकर भी, ऊपर की किसी भी स्थिति में अथवा किसी भी कार्य में किसी प्रकार की कोई त्रुटि न करके अपनी अनन्त रुप धारण सामर्थ्य | + | मैं अज अर्थात जन्म रहित, अव्यय अर्थात अविनाशी और भूतों का ईश्वर अर्थात भूतों के बाहर-भीतर स्थित होकर तथा उन पर शासन करने वाला होकर भी, ऊपर की किसी भी स्थिति में अथवा किसी भी कार्य में किसी प्रकार की कोई त्रुटि न करके अपनी अनन्त रुप धारण सामर्थ्य सम्पन्नरूपी स्वभाव धर्म शक्ति का उपयोग करके अपनी माया से अर्थात विशिष्ट स्वरुपाकार धारणा से स्थूल जगत में अवतार धारण करता हूँ। इस प्रकार अपने अरुप, अचिन्त्य, निर्गुण तथा सर्वव्यापी स्वरुप में से रुपवान, चिन्त्य, सगुण तथा एकदेशी मानवीय रुप धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही अपने अवतार का रहस्य इस प्रकार खोलते हैं- |
<poem style="text-align:center">'''यदा यदा हि धर्मस्य ग्लाननिर्भवति भारत ।''' | <poem style="text-align:center">'''यदा यदा हि धर्मस्य ग्लाननिर्भवति भारत ।''' | ||
'''अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।''' | '''अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।''' |
01:02, 8 अप्रॅल 2018 के समय का अवतरण
श्रीकृष्णांक
पूर्णावतार श्रीकृष्ण
यह भावना हुए बिना ईश्वर के अवतार का साक्षात अनुभव प्राप्त करने की इच्छा ही नहीं होती, और उस इच्छा की उत्पत्ति के साथ-साथ ईश्वरीय साक्षात्कार के अनुभव के लिए प्रयत्न किये बिना साक्षात्कार हो नहीं सकता। जिसे साक्षात्कार या अनुभव की आवश्यकता हो उसे चाहिये कि वह इस शक्ति के स्वरुप तथा नियमों को ठीक तरह से जानकर उन नियमों के अनुसार चलते हुए अनुभव प्राप्ति का प्रयत्न करे, तब कहीं उसे साक्षात्कार होगा। साक्षात्कार प्राप्ति के लिए विद्वत्ता, सम्पत्ति, अधिकार और बुद्धिमता के अहंकार का तो सर्वथा लोप हो जाना चाहिये। कारण, ईश्वरीय साक्षात्कार का अनुभव तर्कबुद्धि से नहीं होता। वह तो भगवत्प्रेम से ओत-प्रोत संतों की शरणाभिमुखी बुद्धि के द्वारा ही हो सकता है। ईश्वरावतार के साक्षात्कार की अनुभूति चाहने वाला अपने शरीर तथा मन को जितना ही अधिक शुद्ध करके इसके लिए प्रयत्न करेगा, उसे उतनी ही अधिक अनुभूति होगी । अजोअपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोअपि सन । मैं अज अर्थात जन्म रहित, अव्यय अर्थात अविनाशी और भूतों का ईश्वर अर्थात भूतों के बाहर-भीतर स्थित होकर तथा उन पर शासन करने वाला होकर भी, ऊपर की किसी भी स्थिति में अथवा किसी भी कार्य में किसी प्रकार की कोई त्रुटि न करके अपनी अनन्त रुप धारण सामर्थ्य सम्पन्नरूपी स्वभाव धर्म शक्ति का उपयोग करके अपनी माया से अर्थात विशिष्ट स्वरुपाकार धारणा से स्थूल जगत में अवतार धारण करता हूँ। इस प्रकार अपने अरुप, अचिन्त्य, निर्गुण तथा सर्वव्यापी स्वरुप में से रुपवान, चिन्त्य, सगुण तथा एकदेशी मानवीय रुप धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही अपने अवतार का रहस्य इस प्रकार खोलते हैं- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लाननिर्भवति भारत । अर्थात ‘जब-जब धर्म की ग्लानि होती है (यानि जब गीता में बतलाये मानव धर्म के मार्ग में- जिसके अनुसार चलने से मनुष्यत्व की रक्षा और उन्नति होती है, बाधाएं आ उपस्थित होती हैं और इस कारण जब अपनी वृत्ति को ब्रह्मोन्मुखी अथवा ईश्वरोन्मुखी करने का प्रयत्न करने वाले महात्मभावापन्न अथवा साधुभावापन्न लोग संकट में पड़ जाते हैं)। |