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संकर्षण जीवतत्त्व के अधिष्ठाता हैं, ईश्वर के अधिष्ठान बिना जीव का कोई भी कार्य नहीं हो सकता। जब भगवान की सृष्टिच्छा होती है तब वे प्रकृति में विलीन जीवतत्त्व के अधिष्ठिता होकर प्रकृति के अन्दर से जीव को अलग करके निकाल देते हैं। इसी के साथ ही अव्याकृत-प्रकृति से नामरूप जाग्रत हो उठता है। | संकर्षण जीवतत्त्व के अधिष्ठाता हैं, ईश्वर के अधिष्ठान बिना जीव का कोई भी कार्य नहीं हो सकता। जब भगवान की सृष्टिच्छा होती है तब वे प्रकृति में विलीन जीवतत्त्व के अधिष्ठिता होकर प्रकृति के अन्दर से जीव को अलग करके निकाल देते हैं। इसी के साथ ही अव्याकृत-प्रकृति से नामरूप जाग्रत हो उठता है। | ||
− | प्रद्युम्न मन के अधिष्ठाता हैं। प्रद्युम्न से वीर्य द्वारा सर्वधर्मों का प्रवर्तन होता है और ऐश्वर्य द्वारा शुद्ध सृष्टि का विधान होता है। संहार प्रद्युम्न से होता है। शुद्ध सर्ग के अन्दर एक मनु की मुख से और एक-एक मनु की बाहु, ऊरु एवं पाद से सृष्टि होना ही प्रधान सृष्टि है। इन चारों मनुओं को ब्राह्मणादि प्रतिवर्ण की एक-एक युगल-मूर्ति स्वरूप समझना चाहिये। इन मनुचतुष्टय से क्रमश: मानव, मानव-मानव और मनुष्य उत्पन्न होते हैं। ये सभी शुद्धसत्त्वस्थ, निष्काम, भगवत-परायण और | + | प्रद्युम्न मन के अधिष्ठाता हैं। प्रद्युम्न से वीर्य द्वारा सर्वधर्मों का प्रवर्तन होता है और ऐश्वर्य द्वारा शुद्ध सृष्टि का विधान होता है। संहार प्रद्युम्न से होता है। शुद्ध सर्ग के अन्दर एक मनु की मुख से और एक-एक मनु की बाहु, ऊरु एवं पाद से सृष्टि होना ही प्रधान सृष्टि है। इन चारों मनुओं को ब्राह्मणादि प्रतिवर्ण की एक-एक युगल-मूर्ति स्वरूप समझना चाहिये। इन मनुचतुष्टय से क्रमश: मानव, मानव-मानव और मनुष्य उत्पन्न होते हैं। ये सभी शुद्धसत्त्वस्थ, निष्काम, भगवत-परायण और अध्यात्मचिन्तक होते हैं। |
अनिरुद्ध अनन्त जगत के (शक्ति के द्वारा) रक्षाकर्ता एवं तत्त्वज्ञान ज्ञाता हैं और (तेज के द्वारा) कालसृष्टि और मिश्रसृष्टि के विधाता हैं। यही ब्रह्मा के सृष्टिकर्ता हैं। ब्रह्मा से चार प्रकार के रजोबहुल भूतसर्ग (ब्राह्मण आदि)– की उत्पत्ति होती है– ये सकाम और कर्मासक्त होते हैं। अनिरुद्ध स्वयं ही अण्ड और अण्ड का कारण उत्पन्न करते हैं। एवं चेतन के अन्तर्यामी होकर अण्ड के अन्तर्गत वस्तु समूह की सृष्टि करते हैं। इसीलिये वे अपने संकल्प बल से सारी समष्टि-सृष्टि साक्षात-रूप से और व्यष्टि-सृष्टि किसी द्वार का अवलम्बन करके करते हैं। इस अण्ड में जो बद्धात्म समष्टिरूप ब्रह्मा जन्म ग्रहण करते हैं यही उनकी साक्षात सृष्टि का निदर्शन है। फिर उस ब्रह्मा के द्वारा जो सृष्टि होती है, वह दूसरी प्रकार की सृष्टि है।<ref>कोई-कोई समझते हैं कि शुद्ध सृष्टि साक्षात-रूप से सम्पन्न होती है, परन्तु मिश्र-सृष्टि किसी द्वार को अवलम्बन करके होती है। इन बातों को सब स्वीकार नहीं करते। </ref> | अनिरुद्ध अनन्त जगत के (शक्ति के द्वारा) रक्षाकर्ता एवं तत्त्वज्ञान ज्ञाता हैं और (तेज के द्वारा) कालसृष्टि और मिश्रसृष्टि के विधाता हैं। यही ब्रह्मा के सृष्टिकर्ता हैं। ब्रह्मा से चार प्रकार के रजोबहुल भूतसर्ग (ब्राह्मण आदि)– की उत्पत्ति होती है– ये सकाम और कर्मासक्त होते हैं। अनिरुद्ध स्वयं ही अण्ड और अण्ड का कारण उत्पन्न करते हैं। एवं चेतन के अन्तर्यामी होकर अण्ड के अन्तर्गत वस्तु समूह की सृष्टि करते हैं। इसीलिये वे अपने संकल्प बल से सारी समष्टि-सृष्टि साक्षात-रूप से और व्यष्टि-सृष्टि किसी द्वार का अवलम्बन करके करते हैं। इस अण्ड में जो बद्धात्म समष्टिरूप ब्रह्मा जन्म ग्रहण करते हैं यही उनकी साक्षात सृष्टि का निदर्शन है। फिर उस ब्रह्मा के द्वारा जो सृष्टि होती है, वह दूसरी प्रकार की सृष्टि है।<ref>कोई-कोई समझते हैं कि शुद्ध सृष्टि साक्षात-रूप से सम्पन्न होती है, परन्तु मिश्र-सृष्टि किसी द्वार को अवलम्बन करके होती है। इन बातों को सब स्वीकार नहीं करते। </ref> | ||
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13:39, 30 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीकृष्णांक
भगवद्विग्रह
संकर्षण जीवतत्त्व के अधिष्ठाता हैं, ईश्वर के अधिष्ठान बिना जीव का कोई भी कार्य नहीं हो सकता। जब भगवान की सृष्टिच्छा होती है तब वे प्रकृति में विलीन जीवतत्त्व के अधिष्ठिता होकर प्रकृति के अन्दर से जीव को अलग करके निकाल देते हैं। इसी के साथ ही अव्याकृत-प्रकृति से नामरूप जाग्रत हो उठता है। प्रद्युम्न मन के अधिष्ठाता हैं। प्रद्युम्न से वीर्य द्वारा सर्वधर्मों का प्रवर्तन होता है और ऐश्वर्य द्वारा शुद्ध सृष्टि का विधान होता है। संहार प्रद्युम्न से होता है। शुद्ध सर्ग के अन्दर एक मनु की मुख से और एक-एक मनु की बाहु, ऊरु एवं पाद से सृष्टि होना ही प्रधान सृष्टि है। इन चारों मनुओं को ब्राह्मणादि प्रतिवर्ण की एक-एक युगल-मूर्ति स्वरूप समझना चाहिये। इन मनुचतुष्टय से क्रमश: मानव, मानव-मानव और मनुष्य उत्पन्न होते हैं। ये सभी शुद्धसत्त्वस्थ, निष्काम, भगवत-परायण और अध्यात्मचिन्तक होते हैं। अनिरुद्ध अनन्त जगत के (शक्ति के द्वारा) रक्षाकर्ता एवं तत्त्वज्ञान ज्ञाता हैं और (तेज के द्वारा) कालसृष्टि और मिश्रसृष्टि के विधाता हैं। यही ब्रह्मा के सृष्टिकर्ता हैं। ब्रह्मा से चार प्रकार के रजोबहुल भूतसर्ग (ब्राह्मण आदि)– की उत्पत्ति होती है– ये सकाम और कर्मासक्त होते हैं। अनिरुद्ध स्वयं ही अण्ड और अण्ड का कारण उत्पन्न करते हैं। एवं चेतन के अन्तर्यामी होकर अण्ड के अन्तर्गत वस्तु समूह की सृष्टि करते हैं। इसीलिये वे अपने संकल्प बल से सारी समष्टि-सृष्टि साक्षात-रूप से और व्यष्टि-सृष्टि किसी द्वार का अवलम्बन करके करते हैं। इस अण्ड में जो बद्धात्म समष्टिरूप ब्रह्मा जन्म ग्रहण करते हैं यही उनकी साक्षात सृष्टि का निदर्शन है। फिर उस ब्रह्मा के द्वारा जो सृष्टि होती है, वह दूसरी प्रकार की सृष्टि है।[1] जि– अब भगवान के तीसरे रूप की बात कहिये । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कोई-कोई समझते हैं कि शुद्ध सृष्टि साक्षात-रूप से सम्पन्न होती है, परन्तु मिश्र-सृष्टि किसी द्वार को अवलम्बन करके होती है। इन बातों को सब स्वीकार नहीं करते।