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− | '''जि–''' अच्छा, भगवान यह आनन्दमय रूप क्या नित्य है ? जब वे अवतीर्ण होते हैं तब क्या इस नित्य रूप को त्यागकर मायिक रूप ग्रहण करते हैं | + | '''जि–''' अच्छा, भगवान यह आनन्दमय रूप क्या नित्य है? जब वे अवतीर्ण होते हैं तब क्या इस नित्य रूप को त्यागकर मायिक रूप ग्रहण करते हैं? यदि ऐसा ही होता है तो फिर उस परिगृहीत रूप का वैशिष्ट्य ही क्या है? |
− | '''व–''' देखो, भगवान का वह आनन्दमय रूप नित्य है– उनका त्याग-ग्रहण नहीं है, उदयास्त नहीं है, वह कालातीत और निर्विकार है। शास्त्रकार और महापुरुषगण उसे चिदघन-विग्रह कहते हैं। इस रूप को सभी कोई नहीं देख सकते। जो देख पाते हैं, वे धन्य हैं। नारद श्वेतद्वीप में गये थे, नारायण को नहीं देख पाया। शास्त्र में ऐसा वर्णन है। स्वयं नारायण ने कहा था कि नारद मेरे स्वरूप को नहीं देख सके, उन्होंने केवल मेरा मायिक रूप ही देख पाया है। नारद के सदृश भक्त भी सहसा जिस रूप को नहीं देख सकते, कहना नहीं होगा कि उसका दर्शन सुलभ नहीं है। | + | '''व–''' देखो, भगवान का वह आनन्दमय रूप नित्य है– उनका त्याग-ग्रहण नहीं है, उदयास्त नहीं है, वह कालातीत और निर्विकार है। शास्त्रकार और महापुरुषगण उसे चिदघन-विग्रह कहते हैं। इस रूप को सभी कोई नहीं देख सकते। जो देख पाते हैं, वे धन्य हैं। नारद श्वेतद्वीप में गये थे, [[नारायण]] को नहीं देख पाया। शास्त्र में ऐसा वर्णन है। स्वयं नारायण ने कहा था कि नारद मेरे स्वरूप को नहीं देख सके, उन्होंने केवल मेरा मायिक रूप ही देख पाया है। नारद के सदृश भक्त भी सहसा जिस रूप को नहीं देख सकते, कहना नहीं होगा कि उसका दर्शन सुलभ नहीं है। |
− | '''जि–''' यह तो ठीक है; भगवान का रूप अतीन्द्रिय होने के कारण ही क्या सब उसे नहीं देख सकते ? | + | '''जि–''' यह तो ठीक है; भगवान का रूप अतीन्द्रिय होने के कारण ही क्या सब उसे नहीं देख सकते? |
− | '''व–''' यह बात नहीं है। अतीन्द्रिय पदार्थ तो बहुत से हैं। उन सबके देखने की योग्यता हो जाने पर भी भगवद् दर्शन का अधिकार प्राप्त नहीं होता। साधन राज्य में धीरता के साथ प्रविष्ट होकर चलने से उन सबके अतीन्द्रिय-दर्शन भी बहुत-से लोगों को न्यूनाधिक रूप में हो सकते हैं। परन्तु इससे भगवत- साक्षात्कार की योग्यता नहीं हो जाती। देहाश्रित इन्द्रियाँ परिच्छिन्न क्षमता विशिष्ट हैं। जब ये इन्द्रियाँ साधन के प्रभाव से निर्मल होने लगती हैं तब ये पहले की भाँति देहाधीन नहीं रहतीं अर्थात लिंगदेह से | + | '''व–''' यह बात नहीं है। अतीन्द्रिय पदार्थ तो बहुत से हैं। उन सबके देखने की योग्यता हो जाने पर भी भगवद् दर्शन का अधिकार प्राप्त नहीं होता। साधन राज्य में धीरता के साथ प्रविष्ट होकर चलने से उन सबके अतीन्द्रिय-दर्शन भी बहुत-से लोगों को न्यूनाधिक रूप में हो सकते हैं। परन्तु इससे भगवत- साक्षात्कार की योग्यता नहीं हो जाती। देहाश्रित इन्द्रियाँ परिच्छिन्न क्षमता विशिष्ट हैं। जब ये इन्द्रियाँ साधन के प्रभाव से निर्मल होने लगती हैं तब ये पहले की भाँति देहाधीन नहीं रहतीं अर्थात लिंगदेह से आंशिकरूप में पृथकभूत प्रतीत होता है तब उससे सम्पृक्त इन्द्रियाँ भी फिर उतनी स्थूल जगत के नियमाधीन नहीं रहतीं। हाँ, दोनों में कुछ संबंध अवश्य ही रहता है। |
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12:12, 30 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीकृष्णांक
भगवद्विग्रह
जि– अच्छा, भगवान यह आनन्दमय रूप क्या नित्य है? जब वे अवतीर्ण होते हैं तब क्या इस नित्य रूप को त्यागकर मायिक रूप ग्रहण करते हैं? यदि ऐसा ही होता है तो फिर उस परिगृहीत रूप का वैशिष्ट्य ही क्या है? व– देखो, भगवान का वह आनन्दमय रूप नित्य है– उनका त्याग-ग्रहण नहीं है, उदयास्त नहीं है, वह कालातीत और निर्विकार है। शास्त्रकार और महापुरुषगण उसे चिदघन-विग्रह कहते हैं। इस रूप को सभी कोई नहीं देख सकते। जो देख पाते हैं, वे धन्य हैं। नारद श्वेतद्वीप में गये थे, नारायण को नहीं देख पाया। शास्त्र में ऐसा वर्णन है। स्वयं नारायण ने कहा था कि नारद मेरे स्वरूप को नहीं देख सके, उन्होंने केवल मेरा मायिक रूप ही देख पाया है। नारद के सदृश भक्त भी सहसा जिस रूप को नहीं देख सकते, कहना नहीं होगा कि उसका दर्शन सुलभ नहीं है। जि– यह तो ठीक है; भगवान का रूप अतीन्द्रिय होने के कारण ही क्या सब उसे नहीं देख सकते? व– यह बात नहीं है। अतीन्द्रिय पदार्थ तो बहुत से हैं। उन सबके देखने की योग्यता हो जाने पर भी भगवद् दर्शन का अधिकार प्राप्त नहीं होता। साधन राज्य में धीरता के साथ प्रविष्ट होकर चलने से उन सबके अतीन्द्रिय-दर्शन भी बहुत-से लोगों को न्यूनाधिक रूप में हो सकते हैं। परन्तु इससे भगवत- साक्षात्कार की योग्यता नहीं हो जाती। देहाश्रित इन्द्रियाँ परिच्छिन्न क्षमता विशिष्ट हैं। जब ये इन्द्रियाँ साधन के प्रभाव से निर्मल होने लगती हैं तब ये पहले की भाँति देहाधीन नहीं रहतीं अर्थात लिंगदेह से आंशिकरूप में पृथकभूत प्रतीत होता है तब उससे सम्पृक्त इन्द्रियाँ भी फिर उतनी स्थूल जगत के नियमाधीन नहीं रहतीं। हाँ, दोनों में कुछ संबंध अवश्य ही रहता है। |