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− | '''व–''' भगवान में जन्म भी नहीं है और कर्म भी नहीं है। कारण, उनके अदृष्य (प्रारब्ध-कर्म) नहीं है। जीव अपने प्राक्तन कर्म-संस्कारवश तदनुरूप देह ग्रहण कर कर्म-फल का भोग करता है और नवीन कर्मों का सम्पादन करता है। भगवान में कर्म-संस्कार न रहने के कारण वे भोगदेह ग्रहण नहीं करते एवं उनमें कर्तृत्वाभिमान नहीं है इसलिये वे किसी नवीन कर्म के सम्पादक भी नहीं बनते। वे ऐसा कर्म नहीं करते जिससे फल उत्पन्न होता हो। | + | '''व–''' भगवान में जन्म भी नहीं है और कर्म भी नहीं है। कारण, उनके अदृष्य (प्रारब्ध-कर्म) नहीं है। जीव अपने प्राक्तन कर्म-संस्कारवश तदनुरूप देह ग्रहण कर कर्म-फल का भोग करता है और नवीन कर्मों का सम्पादन करता है। भगवान में कर्म-संस्कार न रहने के कारण वे भोगदेह ग्रहण नहीं करते एवं उनमें कर्तृत्वाभिमान नहीं है इसलिये वे किसी नवीन कर्म के सम्पादक भी नहीं बनते। वे ऐसा कर्म नहीं करते जिससे फल उत्पन्न होता हो। भगवान क्यों, मुक्त पुरुष भी जन्म-कर्म-रहित ही होते हैं, तथापि शास्त्रों में भगवान के भी देह-ग्रहण के और कर्म के संबंध में वर्णन पाये जाते हैं। सुतरां, यह कहना नहीं होगा कि वे जन्म-कर्म इतर जीवों के सदृश नहीं हैं। इसीलिये गीता में ‘दिव्य’ शब्द के प्रयोग द्वारा यह सूचित किया गया है। दु:खमग्न जीवों के कल्याणार्थ कभी भगवान और कभी उनके परिकरगण देह ग्रहण कर अवतीर्ण हुआ करते हैं। उनके जीवन के कर्म साधारण जीवों के कर्म से पृथक होते हैं– वस्तुत: एक तरह से उनको कर्म न कहने में भी कोई क्षति नहीं है। जिसके मूल में अदृष्ट की प्रेरणा नहीं है और फल का भोग नहीं है, वह कर्म प्रचलित कर्म-जातीय कर्म नहीं है, इसमें सन्देह ही क्या है? ‘लीला’ शब्द के द्वारा अनेक लोग इसी विलक्षणता को समझाया करते हैं। |
− | भगवान | + | '''जि–''' किसी-किसी का कहना है कि भगवान के जन्म या कर्म हो ही नहीं सकते। जो सर्वव्यापक अखण्ड सत्तास्वरूप हैं, किसी भी देश, काल में जिनके अभाव की सम्भावना नहीं है, जो निष्क्रिय चैतन्यस्वरूप हैं और सर्वदा एकरूप हैं, उनमें जन्म और कर्म कैसे हो सकते हैं ? इसी से उनका अवतार नहीं हो सकता। विचार करके देखने पर ऐसा कहना असंगत भी नहीं प्रतीत होता। इस विषय में वास्तविक सिद्धान्त क्या है, मैं उसी को जानना चाहता हूँ। |
− | + | '''व–''' वत्स, जिस दृष्टि से भेद या अभेद मूलक किसी भी वैशिष्ट्य की प्रतीति नहीं होती, वहाँ न तो कोई शंका है और न किसी समाधान की ही आवश्यकता है। जहाँ भेद और अभेद दोनों का ग्रास करके स्वप्रकाश तत्त्त प्रकाशित हो रहा है, वहाँ भी शंका नहीं है। जहाँ काल का विकास और माया का विस्तार है, अतएव जहाँ भेद और अभेद का परस्पर वैषम्य प्रकट हो रहा है वहीं संशय की उत्पत्ति होती है और इसी द्वन्द्वमय अवस्था में शंका और समाधान हुआ करते हैं। | |
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11:53, 30 मार्च 2018 का अवतरण
श्रीकृष्णांक
भगवद्विग्रह
व– भगवान में जन्म भी नहीं है और कर्म भी नहीं है। कारण, उनके अदृष्य (प्रारब्ध-कर्म) नहीं है। जीव अपने प्राक्तन कर्म-संस्कारवश तदनुरूप देह ग्रहण कर कर्म-फल का भोग करता है और नवीन कर्मों का सम्पादन करता है। भगवान में कर्म-संस्कार न रहने के कारण वे भोगदेह ग्रहण नहीं करते एवं उनमें कर्तृत्वाभिमान नहीं है इसलिये वे किसी नवीन कर्म के सम्पादक भी नहीं बनते। वे ऐसा कर्म नहीं करते जिससे फल उत्पन्न होता हो। भगवान क्यों, मुक्त पुरुष भी जन्म-कर्म-रहित ही होते हैं, तथापि शास्त्रों में भगवान के भी देह-ग्रहण के और कर्म के संबंध में वर्णन पाये जाते हैं। सुतरां, यह कहना नहीं होगा कि वे जन्म-कर्म इतर जीवों के सदृश नहीं हैं। इसीलिये गीता में ‘दिव्य’ शब्द के प्रयोग द्वारा यह सूचित किया गया है। दु:खमग्न जीवों के कल्याणार्थ कभी भगवान और कभी उनके परिकरगण देह ग्रहण कर अवतीर्ण हुआ करते हैं। उनके जीवन के कर्म साधारण जीवों के कर्म से पृथक होते हैं– वस्तुत: एक तरह से उनको कर्म न कहने में भी कोई क्षति नहीं है। जिसके मूल में अदृष्ट की प्रेरणा नहीं है और फल का भोग नहीं है, वह कर्म प्रचलित कर्म-जातीय कर्म नहीं है, इसमें सन्देह ही क्या है? ‘लीला’ शब्द के द्वारा अनेक लोग इसी विलक्षणता को समझाया करते हैं। जि– किसी-किसी का कहना है कि भगवान के जन्म या कर्म हो ही नहीं सकते। जो सर्वव्यापक अखण्ड सत्तास्वरूप हैं, किसी भी देश, काल में जिनके अभाव की सम्भावना नहीं है, जो निष्क्रिय चैतन्यस्वरूप हैं और सर्वदा एकरूप हैं, उनमें जन्म और कर्म कैसे हो सकते हैं ? इसी से उनका अवतार नहीं हो सकता। विचार करके देखने पर ऐसा कहना असंगत भी नहीं प्रतीत होता। इस विषय में वास्तविक सिद्धान्त क्या है, मैं उसी को जानना चाहता हूँ। व– वत्स, जिस दृष्टि से भेद या अभेद मूलक किसी भी वैशिष्ट्य की प्रतीति नहीं होती, वहाँ न तो कोई शंका है और न किसी समाधान की ही आवश्यकता है। जहाँ भेद और अभेद दोनों का ग्रास करके स्वप्रकाश तत्त्त प्रकाशित हो रहा है, वहाँ भी शंका नहीं है। जहाँ काल का विकास और माया का विस्तार है, अतएव जहाँ भेद और अभेद का परस्पर वैषम्य प्रकट हो रहा है वहीं संशय की उत्पत्ति होती है और इसी द्वन्द्वमय अवस्था में शंका और समाधान हुआ करते हैं। |