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पाप और शोक के दावानल से दग्ध इस जगतीतल में भगवान ने पदार्पण किया। इस बात का आज पाँच सहस्र वर्ष हो गये। वे एक महान सन्देश लेकर पधारे। केवल सन्देश ही नहीं कुछ और भी लाये। वे एक नया सृजनशील जीवन लेकर आये। वे मानव प्रगति में एक नया युग स्थापित करने आये। इस जीर्ण शीर्ण रक्तप्लावित भूमि में वे एक स्वप्न लेकर आये। | पाप और शोक के दावानल से दग्ध इस जगतीतल में भगवान ने पदार्पण किया। इस बात का आज पाँच सहस्र वर्ष हो गये। वे एक महान सन्देश लेकर पधारे। केवल सन्देश ही नहीं कुछ और भी लाये। वे एक नया सृजनशील जीवन लेकर आये। वे मानव प्रगति में एक नया युग स्थापित करने आये। इस जीर्ण शीर्ण रक्तप्लावित भूमि में वे एक स्वप्न लेकर आये। | ||
− | जन्माष्टमी के दिन उसी स्वप्न की स्मृति में महोत्सव मनाया जाता है। हम लोगों में जो इस तिथि को पवित्र मानते हैं, कितने ऐसे हैं जो इस विनश्वर जगत में उस दिव्य जीवन के अमर स्वप्न को प्रत्यक्ष देखते हैं ? श्रीकृष्ण ने गोकुल और वृन्दावन में मधुर मुरली के मोहक स्वर में और कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में (गीतारूप में) सृजनशील जीवन का वह सन्देश सुनाया जो नाम रूप, रूढि तथा साम्प्रदायिकता से परे है। रणांगण में अर्जुन को मोह हुआ। भाई-बन्धु, सुहृद मित्र, कुअुमब परिवार, आचार व्यवहार और कीर्ति अपकीर्ति ये यब नाम रूप ही तो हैं। | + | जन्माष्टमी के दिन उसी स्वप्न की स्मृति में महोत्सव मनाया जाता है। हम लोगों में जो इस तिथि को पवित्र मानते हैं, कितने ऐसे हैं जो इस विनश्वर जगत में उस दिव्य जीवन के अमर स्वप्न को प्रत्यक्ष देखते हैं? श्रीकृष्ण ने गोकुल और [[वृन्दावन]] में मधुर मुरली के मोहक स्वर में और कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में (गीतारूप में) सृजनशील जीवन का वह सन्देश सुनाया जो नाम रूप, रूढि तथा साम्प्रदायिकता से परे है। रणांगण में अर्जुन को मोह हुआ। भाई-बन्धु, सुहृद मित्र, कुअुमब परिवार, आचार व्यवहार और कीर्ति अपकीर्ति ये यब नाम रूप ही तो हैं। |
− | श्रीकृष्ण ने अर्जुन को | + | श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दान सबसे ऊपर उठने को कहा, व्यष्टि से उठकर समष्टि में अर्थात सनातन तत्त्व की ओर जाने का उपदेश दिया। वही सनातन तत्त्व आत्मा है ! ‘तत्त्वमसि’ ! मनुष्य ! तू आत्मा है ! परमात्मा का प्राण है ! मोह रज्जु से बँधा हुआ ईश्वर है ! चौरासी के चक्कर में पड़ा हुआ चैतन्य है ! क्या यही गीता के उपदेश का सार नहीं है ? मेरे प्यारे बन्धुओं ! क्या हम और आप सभी सान्त से अनत की ओर नहीं जा रहे हैं? क्या तुम भगवान को खोजते हो? अपने हृदय वल्लभ की टोह में हो? यदि ऐसा है तो उसे अपने अन्दर खोजो ! वहीं तुम्हें वह प्रियतम मिलेगा। |
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[[चित्र:Next.png|right|link=कृष्णांक पृ. 135]] | [[चित्र:Next.png|right|link=कृष्णांक पृ. 135]] |
18:02, 29 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीकृष्णांक
जन्माष्टमी का सन्देश
पाप और शोक के दावानल से दग्ध इस जगतीतल में भगवान ने पदार्पण किया। इस बात का आज पाँच सहस्र वर्ष हो गये। वे एक महान सन्देश लेकर पधारे। केवल सन्देश ही नहीं कुछ और भी लाये। वे एक नया सृजनशील जीवन लेकर आये। वे मानव प्रगति में एक नया युग स्थापित करने आये। इस जीर्ण शीर्ण रक्तप्लावित भूमि में वे एक स्वप्न लेकर आये। जन्माष्टमी के दिन उसी स्वप्न की स्मृति में महोत्सव मनाया जाता है। हम लोगों में जो इस तिथि को पवित्र मानते हैं, कितने ऐसे हैं जो इस विनश्वर जगत में उस दिव्य जीवन के अमर स्वप्न को प्रत्यक्ष देखते हैं? श्रीकृष्ण ने गोकुल और वृन्दावन में मधुर मुरली के मोहक स्वर में और कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में (गीतारूप में) सृजनशील जीवन का वह सन्देश सुनाया जो नाम रूप, रूढि तथा साम्प्रदायिकता से परे है। रणांगण में अर्जुन को मोह हुआ। भाई-बन्धु, सुहृद मित्र, कुअुमब परिवार, आचार व्यवहार और कीर्ति अपकीर्ति ये यब नाम रूप ही तो हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दान सबसे ऊपर उठने को कहा, व्यष्टि से उठकर समष्टि में अर्थात सनातन तत्त्व की ओर जाने का उपदेश दिया। वही सनातन तत्त्व आत्मा है ! ‘तत्त्वमसि’ ! मनुष्य ! तू आत्मा है ! परमात्मा का प्राण है ! मोह रज्जु से बँधा हुआ ईश्वर है ! चौरासी के चक्कर में पड़ा हुआ चैतन्य है ! क्या यही गीता के उपदेश का सार नहीं है ? मेरे प्यारे बन्धुओं ! क्या हम और आप सभी सान्त से अनत की ओर नहीं जा रहे हैं? क्या तुम भगवान को खोजते हो? अपने हृदय वल्लभ की टोह में हो? यदि ऐसा है तो उसे अपने अन्दर खोजो ! वहीं तुम्हें वह प्रियतम मिलेगा। |