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'''हृदयं कौस्तुभोद्भासि हरे: पुष्णातु व: प्रिय:।''' | '''हृदयं कौस्तुभोद्भासि हरे: पुष्णातु व: प्रिय:।''' | ||
− | '''राधाप्रवेशरोधाय | + | '''राधाप्रवेशरोधाय दत्तमुद्रवमिव श्रिया॥'''</poem> |
− | लीला ललाम लक्ष्मीजी राधा के आक्रमण से भयभीत सी रहती है। वे डरा करती हैं कि कहीं वह मेरे प्रेम पात्र के प्रेम के कुछ अंश का अपहरण न कर ले। इस कारण भगवान के हृदय में घुसने के मार्ग पर उन्होंने सील मुहर कर दी है। हरि के हृदय में जो कौस्तुभ मणि विराजती है वह क्या है, आप जानते हैं ? वही तो भगवती | + | लीला ललाम लक्ष्मीजी [[राधा]] के आक्रमण से भयभीत सी रहती है। वे डरा करती हैं कि कहीं वह मेरे प्रेम पात्र के प्रेम के कुछ अंश का अपहरण न कर ले। इस कारण भगवान के हृदय में घुसने के मार्ग पर उन्होंने सील मुहर कर दी है। हरि के हृदय में जो कौस्तुभ मणि विराजती है वह क्या है, आप जानते हैं? वही तो भगवती लक्ष्मी जी की लगायी हुई सील है। इस तरह की सील मुहर लगा हुआ भगवान [[श्रीकृष्ण]] का हृदय ‘कल्याण’ का अभ्युदय करे। |
<poem style="text-align:center;">'''(2)''' | <poem style="text-align:center;">'''(2)''' | ||
'''विहाय पीयूषरसं मुनिश्वरा''' | '''विहाय पीयूषरसं मुनिश्वरा''' | ||
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'''इति स्वपादाम्बुजपानकौतुकी''' | '''इति स्वपादाम्बुजपानकौतुकी''' | ||
'''स गोपबाल: श्रियमातनोतु व:॥'''</poem> | '''स गोपबाल: श्रियमातनोतु व:॥'''</poem> | ||
− | बचपन में शिशु अपने पैर का अँगूठा मुँह में डालकर उसे पीता सा है। गोपबालरूपी भगवान श्रीकृष्ण को भी इस आदत से | + | बचपन में शिशु अपने पैर का अँगूठा मुँह में डालकर उसे पीता सा है। गोपबालरूपी [[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] को भी इस आदत से खाली न समझिये। उनको भी यह लत थी; पर सामान्य शिशुओं की तरह अकारण नहीं। वह सकारण थी। बड़े-बड़े ऋषि मुनि अमृतपान को तुच्छ समझकर जो मेरे पादारविन्द का रस पीते हैं वह क्यों? क्या वह अमृत से भी अधिक स्वादिष्ट है? इसी बात की परीक्षा के लिये जो शिशु कृष्ण यह निज पद पान रूपी खेल किया करते थे वही श्रीमान ‘कल्याण’ और उसके अभिभावकों की विभूति वृद्धि करें। |
<poem style="text-align:center;">'''(3)''' | <poem style="text-align:center;">'''(3)''' | ||
'''कालिन्दीपुलिनोदरेषु मुसली यावद्गत: क्रीडितुं''' | '''कालिन्दीपुलिनोदरेषु मुसली यावद्गत: क्रीडितुं''' | ||
'''तावत्कर्बुरिकापय: पिब हरे वर्धिष्यते ते शिखा।''' | '''तावत्कर्बुरिकापय: पिब हरे वर्धिष्यते ते शिखा।''' | ||
− | '''इत्थं बालतया प्रतारणपरा: श्रुत्वा | + | '''इत्थं बालतया प्रतारणपरा: श्रुत्वा यशोदागिर:''' |
− | '''पायाद्व: स्वशिखां स्पृशन्प्रमुदित: | + | '''पायाद्व: स्वशिखां स्पृशन्प्रमुदित: क्षीरेऽर्ध्दपीते हरि:॥'''</poem> |
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[[चित्र:Next.png|right|link=कृष्णांक पृ. 130]] | [[चित्र:Next.png|right|link=कृष्णांक पृ. 130]] |
17:46, 29 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीकृष्णांक
शुभाशंसा
(1) लीला ललाम लक्ष्मीजी राधा के आक्रमण से भयभीत सी रहती है। वे डरा करती हैं कि कहीं वह मेरे प्रेम पात्र के प्रेम के कुछ अंश का अपहरण न कर ले। इस कारण भगवान के हृदय में घुसने के मार्ग पर उन्होंने सील मुहर कर दी है। हरि के हृदय में जो कौस्तुभ मणि विराजती है वह क्या है, आप जानते हैं? वही तो भगवती लक्ष्मी जी की लगायी हुई सील है। इस तरह की सील मुहर लगा हुआ भगवान श्रीकृष्ण का हृदय ‘कल्याण’ का अभ्युदय करे। (2) बचपन में शिशु अपने पैर का अँगूठा मुँह में डालकर उसे पीता सा है। गोपबालरूपी भगवान श्रीकृष्ण को भी इस आदत से खाली न समझिये। उनको भी यह लत थी; पर सामान्य शिशुओं की तरह अकारण नहीं। वह सकारण थी। बड़े-बड़े ऋषि मुनि अमृतपान को तुच्छ समझकर जो मेरे पादारविन्द का रस पीते हैं वह क्यों? क्या वह अमृत से भी अधिक स्वादिष्ट है? इसी बात की परीक्षा के लिये जो शिशु कृष्ण यह निज पद पान रूपी खेल किया करते थे वही श्रीमान ‘कल्याण’ और उसके अभिभावकों की विभूति वृद्धि करें। (3) |