छो (Text replacement - "पृथिवी" to "पृथ्वी") |
|||
पंक्ति 11: | पंक्ति 11: | ||
<center>'''1-कालियमर्दन'''</center> | <center>'''1-कालियमर्दन'''</center> | ||
− | कालिय नामक एक दुष्ट सर्प था, जिसकी बाँबी नदी के किनारे थी। इस नदी का जल लोगों के पीने के काम में आता था। कालिय ने उसे विषैला कर दिया और लोग उसके भय से बड़े दुखी हो गये। बालक श्रीकृष्ण ने वहाँ जाकर उसे बाहर निकलने के लिये ललकारा- फिर वे उसके फण पर नृत्य करने लगे जिससे मर्माहत होकर वह चूर्ण हो गया और नदी का जल निर्विष हो गया। | + | कालिय नामक एक दुष्ट सर्प था, जिसकी बाँबी नदी के किनारे थी। इस नदी का जल लोगों के पीने के काम में आता था। कालिय ने उसे विषैला कर दिया और लोग उसके भय से बड़े दुखी हो गये। बालक श्रीकृष्ण ने वहाँ जाकर उसे बाहर निकलने के लिये ललकारा- फिर वे उसके फण पर नृत्य करने लगे जिससे मर्माहत होकर वह चूर्ण हो गया और नदी का जल निर्विष हो गया। |
− | जब श्रीकृष्ण जैसे महापुरुष पृथ्वी पर अवतीर्ण होते हैं तो वे इस | + | इसका अर्थ यह है कि स्वार्थपरता, निर्दयता आदि का एक ऐसा दोष समूह है जो जीवन के सुखमय स्त्रोत को दूषित कर देता है। जब [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] जैसे महापुरुष पृथ्वी पर अवतीर्ण होते हैं तो वे इस दुष्ट सर्प का मस्तक कुचल डालते हैं। बात यह है कि उनके उपदेशों के और सर्वोपरि उनके महान पवित्र जीवन के प्रभाव के साथ-साथ दिव्य लोक से वह माधुर्य की धारा बहकर आती है जो जीवन के स्त्रोत को पवित्र बना देती है। जब दीर्घकाल के बाद इस स्त्रोत का जल फिर दूषित होने लगता है तब अन्त में भगवान को इसे शुद्ध करने के लिये पुनः अवतार लेकर पृथ्वी पर आना पड़ता है। |
<center>'''2-वृक्षों की कथा'''</center> | <center>'''2-वृक्षों की कथा'''</center> | ||
− | एक बार भगवान श्रीकृष्ण, जब वे सात बरस के भी नहीं थे, अपने सखाओं के साथ गौएँ चराते हुए दूर जंगल में जा पहुँचे। ग्रीष्म का सूर्य प्रचण्ड रूप से तप रहा था और विशाल वृक्षों की छाया बड़ी शीतल ओर सुखद थी। बालकृष्ण अपने सखाओं से बोले, ‘इन वृक्षों को देखो, ये किस प्रकार दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। स्वयं प्रचण्ड आतप, वर्षा और वात को सहते हुए हमारी इन सबसे रक्षा करते हैं। पत्ते, पुष्प, फल, मूल, छाल जो कुछ भी इनके पास है, ये सब हमें अर्पण करने को प्रस्तुत हैं।’ | + | एक बार [[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]], जब वे सात बरस के भी नहीं थे, अपने सखाओं के साथ गौएँ चराते हुए दूर जंगल में जा पहुँचे। ग्रीष्म का सूर्य प्रचण्ड रूप से तप रहा था और विशाल वृक्षों की छाया बड़ी शीतल ओर सुखद थी। बालकृष्ण अपने सखाओं से बोले, ‘इन वृक्षों को देखो, ये किस प्रकार दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। स्वयं प्रचण्ड आतप, वर्षा और वात को सहते हुए हमारी इन सबसे रक्षा करते हैं। पत्ते, पुष्प, फल, मूल, छाल जो कुछ भी इनके पास है, ये सब हमें अर्पण करने को प्रस्तुत हैं।’ |
| style="vertical-align:bottom;"| | | style="vertical-align:bottom;"| | ||
[[चित्र:Next.png|right|link=कृष्णांक पृ. 127]] | [[चित्र:Next.png|right|link=कृष्णांक पृ. 127]] |
17:32, 29 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण की कुछ लीलाएँ और उनसे शिक्षा
कालिय नामक एक दुष्ट सर्प था, जिसकी बाँबी नदी के किनारे थी। इस नदी का जल लोगों के पीने के काम में आता था। कालिय ने उसे विषैला कर दिया और लोग उसके भय से बड़े दुखी हो गये। बालक श्रीकृष्ण ने वहाँ जाकर उसे बाहर निकलने के लिये ललकारा- फिर वे उसके फण पर नृत्य करने लगे जिससे मर्माहत होकर वह चूर्ण हो गया और नदी का जल निर्विष हो गया। इसका अर्थ यह है कि स्वार्थपरता, निर्दयता आदि का एक ऐसा दोष समूह है जो जीवन के सुखमय स्त्रोत को दूषित कर देता है। जब श्रीकृष्ण जैसे महापुरुष पृथ्वी पर अवतीर्ण होते हैं तो वे इस दुष्ट सर्प का मस्तक कुचल डालते हैं। बात यह है कि उनके उपदेशों के और सर्वोपरि उनके महान पवित्र जीवन के प्रभाव के साथ-साथ दिव्य लोक से वह माधुर्य की धारा बहकर आती है जो जीवन के स्त्रोत को पवित्र बना देती है। जब दीर्घकाल के बाद इस स्त्रोत का जल फिर दूषित होने लगता है तब अन्त में भगवान को इसे शुद्ध करने के लिये पुनः अवतार लेकर पृथ्वी पर आना पड़ता है। एक बार भगवान श्रीकृष्ण, जब वे सात बरस के भी नहीं थे, अपने सखाओं के साथ गौएँ चराते हुए दूर जंगल में जा पहुँचे। ग्रीष्म का सूर्य प्रचण्ड रूप से तप रहा था और विशाल वृक्षों की छाया बड़ी शीतल ओर सुखद थी। बालकृष्ण अपने सखाओं से बोले, ‘इन वृक्षों को देखो, ये किस प्रकार दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। स्वयं प्रचण्ड आतप, वर्षा और वात को सहते हुए हमारी इन सबसे रक्षा करते हैं। पत्ते, पुष्प, फल, मूल, छाल जो कुछ भी इनके पास है, ये सब हमें अर्पण करने को प्रस्तुत हैं।’ |