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− | जन्म, कुल, ऐश्वर्य, विद्या और धन आदि के मद से उन्मत्त हुए पुरुष आपको नहीं देख सकते, क्योंकि धनादि के मद से मदान्ध पुरुषों को तो अपने बड़प्पन के घमण्ड के कारण ‘श्रीकृष्ण, गोविन्द’ आदि परमपावन श्रीभगवन्नामों का उच्चारण करने में भी संकोच होता है। अतः-<poem style="text-align:center;">''' | + | जन्म, कुल, ऐश्वर्य, विद्या और धन आदि के मद से उन्मत्त हुए पुरुष आपको नहीं देख सकते, क्योंकि धनादि के मद से मदान्ध पुरुषों को तो अपने बड़प्पन के घमण्ड के कारण ‘श्रीकृष्ण, गोविन्द’ आदि परमपावन श्रीभगवन्नामों का उच्चारण करने में भी संकोच होता है। अतः-<poem style="text-align:center;">'''नमोऽकिंञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये।''' |
'''आत्मारामाय शांताय कैवल्यपतये नम:॥'''</poem> | '''आत्मारामाय शांताय कैवल्यपतये नम:॥'''</poem> | ||
− | हे प्रभो ! मैं आपको नमस्कार करती हूँ। जिनके पास कोई भी प्राकृत वस्तु नहीं होती बल्कि पूर्ण सच्चिदानन्द स्वरूप केवल आप ही एकमात्र जिनके धन हैं, वे अनन्य भक्तजन ही आपकी सम्पत्ति हैं। यदि कहो कि अकिन्चन तो दरिद्र होते हैं, तो क्या दरिद्रजन ही मेरी सम्पत्ति हैं, सो ऐसा नहीं है, आपके भक्तों में मायिक गुणों की वृत्ति नहीं होती, अतएव वे केवल मायिक सम्पत्ति से हीन होते हैं। आपके प्रेमधन के तो एकमात्र वे ही अधिकारी होते हैं। उन गुणवृत्ति शून्य भक्तों को छोड़कर और कहीं भी आपकी आसक्ति नहीं है, अतएव आप आत्माराम हैं। | + | हे प्रभो ! मैं आपको नमस्कार करती हूँ। जिनके पास कोई भी प्राकृत वस्तु नहीं होती बल्कि पूर्ण सच्चिदानन्द स्वरूप केवल आप ही एकमात्र जिनके धन हैं, वे अनन्य भक्तजन ही आपकी सम्पत्ति हैं। यदि कहो कि अकिन्चन तो दरिद्र होते हैं, तो क्या दरिद्रजन ही मेरी सम्पत्ति हैं, सो ऐसा नहीं है, आपके भक्तों में मायिक गुणों की वृत्ति नहीं होती, अतएव वे केवल मायिक सम्पत्ति से हीन होते हैं। आपके प्रेमधन के तो एकमात्र वे ही अधिकारी होते हैं। उन गुणवृत्ति शून्य भक्तों को छोड़कर और कहीं भी आपकी आसक्ति नहीं है, अतएव आप आत्माराम हैं। भक्तों के अपराध करने पर भी आप कुपित नहीं होते, इसलिये शान्तस्वरूप हैं। मुमुक्षुजनों के एकमात्र धन कैवल्य पद के स्वामी भी आप ही हैं, क्योंकि आपका अनुग्रह होने पर ही वह अनुपम पद प्राप्त हो सकता है। यदि आप कहैं कि मैं तो देवकी का पुत्र हूँ, मेरी इस प्रकार स्तुति क्यों करती है ? सो-<poem style="text-align:center;">'''मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम्।''' |
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− | भक्तों के अपराध करने पर भी आप कुपित नहीं होते, इसलिये शान्तस्वरूप हैं। मुमुक्षुजनों के एकमात्र धन कैवल्य पद के स्वामी भी आप ही हैं, क्योंकि आपका अनुग्रह होने पर ही वह अनुपम पद प्राप्त हो सकता है। यदि आप कहैं कि मैं तो देवकी का पुत्र हूँ, मेरी इस प्रकार स्तुति क्यों करती है ? सो-<poem style="text-align:center;">'''मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम्।''' | + | |
'''समं चरंतं सर्वत्र भूतानां यन्मिथ: कलि:॥'''</poem> | '''समं चरंतं सर्वत्र भूतानां यन्मिथ: कलि:॥'''</poem> | ||
हे प्रभो ! मैं तो आपको काल स्वरूप, [[ब्रह्मा]], [[इन्द्र]], चन्द्र आदि के नियामक ईश्वर, आदि अन्त से शून्य, सबके प्रभु और सब जगह समान भाव से व्याप्त मानती हूँ। यदि आप कहें कि मैं तो अर्जुन का सारथी हूँ फिर मेरा सर्वत्र समान भाव कैसे हो सकता है? सो ऐसी बात नहीं है, स्वयं आपमें किसी प्रकार की विषमता नहीं है। | हे प्रभो ! मैं तो आपको काल स्वरूप, [[ब्रह्मा]], [[इन्द्र]], चन्द्र आदि के नियामक ईश्वर, आदि अन्त से शून्य, सबके प्रभु और सब जगह समान भाव से व्याप्त मानती हूँ। यदि आप कहें कि मैं तो अर्जुन का सारथी हूँ फिर मेरा सर्वत्र समान भाव कैसे हो सकता है? सो ऐसी बात नहीं है, स्वयं आपमें किसी प्रकार की विषमता नहीं है। |
17:03, 29 मार्च 2018 का अवतरण
विषय सूची
श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण का अवतार-प्रयोजन तथा परत्व
जन्म, कुल, ऐश्वर्य, विद्या और धन आदि के मद से उन्मत्त हुए पुरुष आपको नहीं देख सकते, क्योंकि धनादि के मद से मदान्ध पुरुषों को तो अपने बड़प्पन के घमण्ड के कारण ‘श्रीकृष्ण, गोविन्द’ आदि परमपावन श्रीभगवन्नामों का उच्चारण करने में भी संकोच होता है। अतः- नमोऽकिंञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये। मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम्। हे प्रभो ! मैं तो आपको काल स्वरूप, ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्र आदि के नियामक ईश्वर, आदि अन्त से शून्य, सबके प्रभु और सब जगह समान भाव से व्याप्त मानती हूँ। यदि आप कहें कि मैं तो अर्जुन का सारथी हूँ फिर मेरा सर्वत्र समान भाव कैसे हो सकता है? सो ऐसी बात नहीं है, स्वयं आपमें किसी प्रकार की विषमता नहीं है। |