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− | ऐश्वर्यहीन पुरुष को सांख्य वाले भी मानते हैं; परन्तु यहाँ वह अकिञ्चित्कर पुरुष अभिमत नहीं है, इसीलिये | + | ऐश्वर्यहीन पुरुष को सांख्य वाले भी मानते हैं; परन्तु यहाँ वह अकिञ्चित्कर पुरुष अभिमत नहीं है, इसीलिये श्रीकुन्ती जी ने ‘ईश्वरम्’ शब्द का प्रयोग किया है; तथा अपेक्षाकृत ईश्वरता ब्रह्मादि देवताओं में भी है, अतः इससे वे न समझे जायँ, इसीलिये '''‘सर्वभूतानामन्तर्वहिरवस्थितम्’''' इस पद का प्रयोग किया है। इस पूर्वोक्त कथन का समर्थन यह श्रुति भी करती है-<poem style="text-align:center;">'''यच्च किंचिज्जगत्सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा।''' |
'''अंतर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायण: स्थित:॥'''</poem> | '''अंतर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायण: स्थित:॥'''</poem> | ||
‘यह संसार जितना दिखायी देता है और सुना जाता है, इसके बाहर और भीतर भगवान व्याप्त हुए विराजमान हैं।’ अतः इसका यही अर्थ निश्चित हुआ कि भगवान प्रकृति से परे हैं; क्योंकि वे अलक्ष्य हैं अर्थात प्रकृति की तरह दिखायी नहीं देते। जीव का अज्ञान रूपी माया का परदा आपके दिखलायी देने में बाधक है। भाव यह है कि इन्द्रियों के द्वारा भगवत्स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता, अतएव भगवान अधोक्षज कहलाते हैं। इन्द्रियों की वृत्तियाँ आपका ज्ञान कराने में सामर्थ्य नहीं रखतीं। जो लोग बहिर्मुख हैं, आपकी उपासना नहीं करते, उनको आपका स्वरूप ज्ञान कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि आप निर्विकार हैं, विकारी वस्तु ही इन्द्रियों से जानी जाती है। उक्त लेख ये यह सिद्ध हुआ कि योगबल से विशुद्ध हुए अन्तःकरण द्वारा आपका ज्ञान हो सकता है। भगवती श्रुति भी सही बताती है-<poem style="text-align:center;">'''न च चक्षुषा पश्यति कश्चनैनं''' | ‘यह संसार जितना दिखायी देता है और सुना जाता है, इसके बाहर और भीतर भगवान व्याप्त हुए विराजमान हैं।’ अतः इसका यही अर्थ निश्चित हुआ कि भगवान प्रकृति से परे हैं; क्योंकि वे अलक्ष्य हैं अर्थात प्रकृति की तरह दिखायी नहीं देते। जीव का अज्ञान रूपी माया का परदा आपके दिखलायी देने में बाधक है। भाव यह है कि इन्द्रियों के द्वारा भगवत्स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता, अतएव भगवान अधोक्षज कहलाते हैं। इन्द्रियों की वृत्तियाँ आपका ज्ञान कराने में सामर्थ्य नहीं रखतीं। जो लोग बहिर्मुख हैं, आपकी उपासना नहीं करते, उनको आपका स्वरूप ज्ञान कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि आप निर्विकार हैं, विकारी वस्तु ही इन्द्रियों से जानी जाती है। उक्त लेख ये यह सिद्ध हुआ कि योगबल से विशुद्ध हुए अन्तःकरण द्वारा आपका ज्ञान हो सकता है। भगवती श्रुति भी सही बताती है-<poem style="text-align:center;">'''न च चक्षुषा पश्यति कश्चनैनं''' | ||
'''न मां स चक्षुरभिविक्षते तम्।''' | '''न मां स चक्षुरभिविक्षते तम्।''' | ||
− | '''दृश्यते त्वग्रया | + | '''दृश्यते त्वग्रया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:।''' |
'''हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्त य एनं विदुरिति॥'''</poem> | '''हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्त य एनं विदुरिति॥'''</poem> | ||
यदि यहाँ कोई यह शंका करे कि भगवान तो श्रीकुन्तीजी के सामने ही विराजमान थे, फिर आप दिखलायी नहीं देते, यह कैसे कहा ? इसका समाधान करने के लिये कहा है के आप नाट्य लीला में प्रवृत्त हुए नट के समान दिखलायी नहीं देते अर्थात नाट्यशाला में अभिनय करता हुआ नट जिस प्रकार नाट्योपयुक्त वेष में ही दिखलायी देता है अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट नहीं होता, इसी प्रकार अज्ञानी पुरुषों को आपका वास्तविक स्वरूप नहीं दीख पड़ता। | यदि यहाँ कोई यह शंका करे कि भगवान तो श्रीकुन्तीजी के सामने ही विराजमान थे, फिर आप दिखलायी नहीं देते, यह कैसे कहा ? इसका समाधान करने के लिये कहा है के आप नाट्य लीला में प्रवृत्त हुए नट के समान दिखलायी नहीं देते अर्थात नाट्यशाला में अभिनय करता हुआ नट जिस प्रकार नाट्योपयुक्त वेष में ही दिखलायी देता है अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट नहीं होता, इसी प्रकार अज्ञानी पुरुषों को आपका वास्तविक स्वरूप नहीं दीख पड़ता। |
16:17, 29 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण का अवतार-प्रयोजन तथा परत्व
ऐश्वर्यहीन पुरुष को सांख्य वाले भी मानते हैं; परन्तु यहाँ वह अकिञ्चित्कर पुरुष अभिमत नहीं है, इसीलिये श्रीकुन्ती जी ने ‘ईश्वरम्’ शब्द का प्रयोग किया है; तथा अपेक्षाकृत ईश्वरता ब्रह्मादि देवताओं में भी है, अतः इससे वे न समझे जायँ, इसीलिये ‘सर्वभूतानामन्तर्वहिरवस्थितम्’ इस पद का प्रयोग किया है। इस पूर्वोक्त कथन का समर्थन यह श्रुति भी करती है- यच्च किंचिज्जगत्सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा। न च चक्षुषा पश्यति कश्चनैनं यदि यहाँ कोई यह शंका करे कि भगवान तो श्रीकुन्तीजी के सामने ही विराजमान थे, फिर आप दिखलायी नहीं देते, यह कैसे कहा ? इसका समाधान करने के लिये कहा है के आप नाट्य लीला में प्रवृत्त हुए नट के समान दिखलायी नहीं देते अर्थात नाट्यशाला में अभिनय करता हुआ नट जिस प्रकार नाट्योपयुक्त वेष में ही दिखलायी देता है अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट नहीं होता, इसी प्रकार अज्ञानी पुरुषों को आपका वास्तविक स्वरूप नहीं दीख पड़ता। |