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− | महात्माजी के अनुभवी और तपस्वी होने मे तो किसी को सन्देह नहीं हो सकता, वह जो कुछ भी लिखते हैं और कहते हैं, वह अपने अनुभव के आधार पर ही कहते हैं। फिर भी | + | महात्माजी के अनुभवी और तपस्वी होने मे तो किसी को सन्देह नहीं हो सकता, वह जो कुछ भी लिखते हैं और कहते हैं, वह अपने अनुभव के आधार पर ही कहते हैं। फिर भी मनुष्य का अनुभव भ्रम या प्रमाद से सर्वथा शून्य नहीं हो सकता, महात्माजी ने अपने अनेक अनुभवों की भयानक भूलें समय-समय पर स्वयं स्वीकार की हैं, यही बात ‘अनासक्ति योग’ के सम्बन्ध में भी हो सकती है। फिर गीतोक्त धर्म को आचरण में लाकर अनुभव करने का प्रयत्न केवल महात्मा जी ने ही तो नहीं किया, भगवान शंकराचार्य, श्री रामानुजाचार्य, श्रीमधुसूदन सरस्वती, श्रीधरस्वामी और लोकमान्य तिलक इत्यादि महापुरुषों के सम्बन्ध में कौन कह सकता है कि गीतोक्त धर्म को अपने आचरण की कर्साटी पर इन्होंने कम परखा था? इनमें लोकमान्य तिलक का उदाहरण तो सबके सामने है, उन्होंने गीता का जितना गहरा मनन और तदनुकूल आचरण जीवन पर्यन्त किया है, उसकी तुलना नहीं हो सकती। |
− | + | महात्मा जी ‘अनासक्तियोग’ में और भी कई बातें खटकने वाली हैं, जिन पर विचार हो सकता है, पर सबसे अधिक आपत्तिजनक और उद्वेजक सही कि महाभारत युद्ध और गीता के [[श्रीकृष्ण]], दोनों ही कल्पना हैं, महात्माजी के से उद्गार हिन्दू धर्म के लिये बहुत ही भयानक हैं। महात्माजी यह व्यवस्था न देते तो हिन्दू जाति पर बड़ी दया करते।<ref>कुछ समय पूर्व श्रीकृष्ण संदेश के सम्पादक सम्मान्य गर्देजी इसी विषय पर लेख लिखा था, जिसके उत्तर में पूज्यवाद महात्मा जी का लिखा हुआ पत्र अन्यत्र प्रकाशित है, पाठक विचारें उससे सम्मानय शर्माजी शंकाओं का समाधान कहाँ तक होता है?-सम्पादक</ref> | |
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16:04, 29 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण और महात्मा जी का अनासक्ति योग
सांसारिक लाभ की दृष्टि से किये जाने वाला भौतिक युद्ध हो या ‘अहिंसात्मक सत्याग्रह संग्राम’? अनत में जाकर परमार्थदर्शी के मत में सबका पर्यवसान उसी रूप मे होगा, जिस रूप में भगवान व्यास ने महाभारत के युद्ध में दिखाया है। सांसारिक विजय चाहे वह किन्हीं उपायों से प्राप्त की जाय, मनुष्य जीवन का ध्येय या परम पुरुषार्थ नहीं है, महाभारतकार का विजेता से रुदन कराने में यही तात्पर्य है, पर इससे भौतिक युद्ध की अनावश्यकता सिद्ध नहीं होती। महात्मा जी ने गीता का अर्थ अपने मतानुसार करने के औचित्य में अपने अनुभव की दुहाई दो बार दी है। महात्माजी के अनुभवी और तपस्वी होने मे तो किसी को सन्देह नहीं हो सकता, वह जो कुछ भी लिखते हैं और कहते हैं, वह अपने अनुभव के आधार पर ही कहते हैं। फिर भी मनुष्य का अनुभव भ्रम या प्रमाद से सर्वथा शून्य नहीं हो सकता, महात्माजी ने अपने अनेक अनुभवों की भयानक भूलें समय-समय पर स्वयं स्वीकार की हैं, यही बात ‘अनासक्ति योग’ के सम्बन्ध में भी हो सकती है। फिर गीतोक्त धर्म को आचरण में लाकर अनुभव करने का प्रयत्न केवल महात्मा जी ने ही तो नहीं किया, भगवान शंकराचार्य, श्री रामानुजाचार्य, श्रीमधुसूदन सरस्वती, श्रीधरस्वामी और लोकमान्य तिलक इत्यादि महापुरुषों के सम्बन्ध में कौन कह सकता है कि गीतोक्त धर्म को अपने आचरण की कर्साटी पर इन्होंने कम परखा था? इनमें लोकमान्य तिलक का उदाहरण तो सबके सामने है, उन्होंने गीता का जितना गहरा मनन और तदनुकूल आचरण जीवन पर्यन्त किया है, उसकी तुलना नहीं हो सकती। महात्मा जी ‘अनासक्तियोग’ में और भी कई बातें खटकने वाली हैं, जिन पर विचार हो सकता है, पर सबसे अधिक आपत्तिजनक और उद्वेजक सही कि महाभारत युद्ध और गीता के श्रीकृष्ण, दोनों ही कल्पना हैं, महात्माजी के से उद्गार हिन्दू धर्म के लिये बहुत ही भयानक हैं। महात्माजी यह व्यवस्था न देते तो हिन्दू जाति पर बड़ी दया करते।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कुछ समय पूर्व श्रीकृष्ण संदेश के सम्पादक सम्मान्य गर्देजी इसी विषय पर लेख लिखा था, जिसके उत्तर में पूज्यवाद महात्मा जी का लिखा हुआ पत्र अन्यत्र प्रकाशित है, पाठक विचारें उससे सम्मानय शर्माजी शंकाओं का समाधान कहाँ तक होता है?-सम्पादक