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− | हिन्दू सभ्यता और इतिहास पर आस्था न रखने वाले अंग्रेजी शिक्षित अन्य लेखकों ने भी ऐसे विचार प्रकट किये हैं। ऐसे विचारों का समय-समय पर खण्डन भी हुआ है, पर इस प्रकार के अन्य लेखकों में और महात्माजी में विशेष भेद हैं, महात्माजी अपने को आस्तिक हिन्दू कहते और मानते हैं, उनके कथन का उनके बहुसंख्यक अनुयायियों पर विशेष प्रभाव पड़ता है, इसलिये महात्माजी को ऐसे धार्मिक विषय पर बहुत सोच-समझकर व्यवस्था देनी चाहिये। महात्माजी का ‘अहिंसा धर्म’ उनके अनुयायिायों की दृष्टि में गीतोक्त धर्म से भी श्रेष्ठ हो सकता है, पर इसके लिये यह आवश्यक नहीं कि गीता से भी खींचतान कर वही ‘अहिंसा धर्म’ सिद्ध किया जाय, जो महात्माजी को अभिप्रेत है। | + | गीता और भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में यह विचार नये या मौलिक नहीं हैं। हिन्दू सभ्यता और इतिहास पर आस्था न रखने वाले अंग्रेजी शिक्षित अन्य लेखकों ने भी ऐसे विचार प्रकट किये हैं। ऐसे विचारों का समय-समय पर खण्डन भी हुआ है, पर इस प्रकार के अन्य लेखकों में और महात्माजी में विशेष भेद हैं, महात्माजी अपने को आस्तिक हिन्दू कहते और मानते हैं, उनके कथन का उनके बहुसंख्यक अनुयायियों पर विशेष प्रभाव पड़ता है, इसलिये महात्माजी को ऐसे धार्मिक विषय पर बहुत सोच-समझकर व्यवस्था देनी चाहिये। महात्माजी का ‘अहिंसा धर्म’ उनके अनुयायिायों की दृष्टि में गीतोक्त धर्म से भी श्रेष्ठ हो सकता है, पर इसके लिये यह आवश्यक नहीं कि गीता से भी खींचतान कर वही ‘अहिंसा धर्म’ सिद्ध किया जाय, जो महात्माजी को अभिप्रेत है। |
− | किसी ग्रन्थ का वास्तविक अभिप्राय समझने और समझाने के लिये उपक्रम, उपसंहार और अभ्यास आदि पर ध्यान देने की नितान्त आवश्यकता होती है। | + | किसी ग्रन्थ का वास्तविक अभिप्राय समझने और समझाने के लिये उपक्रम, उपसंहार और अभ्यास आदि पर ध्यान देने की नितान्त आवश्यकता होती है। महात्मा जी महाभारत युद्ध को ‘काल्पनिक’ कहते हैं, पर गीता और महाभारत को ध्यान पूर्वक पढ़ने से यह बात साफ समझ में आ जाती है कि महात्माजी जिस प्रकार के अहिंसात्मक सत्याग्रह का उपदेश आज दे रहे हैं, युद्ध के प्रारम्भ में ‘अर्जुन’ भी इसी ढंग के विचार प्रकट कर रहा था, वह स्वयं मार खाकर भी प्रतिपक्षियों पर शस्त्र उठाना नहीं चाहता था-<poem style="text-align:center;"> |
− | '''एतान्न हन्तुमिच्छामि | + | '''एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।''' |
'''अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते॥''' | '''अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते॥''' | ||
− | '''अहो बत महत्पापं कर्तुं | + | '''अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।''' |
'''यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता:॥''' | '''यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता:॥''' | ||
'''यदि मामप्रतिकारमशस्त्रं शस्त्रपाणय:।''' | '''यदि मामप्रतिकारमशस्त्रं शस्त्रपाणय:।''' | ||
'''धार्तराष्ट्रा रणे हन्यूस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥'''</poem> | '''धार्तराष्ट्रा रणे हन्यूस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥'''</poem> | ||
− | महात्माजी के सत्याग्रह सम्बन्धी उपदेश और ‘अर्जुन’ के इस विचार में आश्चर्यजनक साम्य है, यदि भगवान श्रीकृष्ण की दृष्टि में अर्जुन का यह विचार उचित होता तो गीता की बात आगे बढ़ती ही नहीं, मामला यहीं खत्म हो जाता, पर भगवान को ‘अर्जुन’ का यह विचार ‘अनार्यजुष्ट’ ‘अस्वर्ग्य’ और ‘अकीर्तिकर’ प्रतीत हुआ, उन्होंने अर्जुन का फटकार कर कहा-<poem style="text-align:center;">'''क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।''' | + | महात्माजी के सत्याग्रह-सम्बन्धी उपदेश और ‘अर्जुन’ के इस विचार में आश्चर्यजनक साम्य है, यदि भगवान श्रीकृष्ण की दृष्टि में अर्जुन का यह विचार उचित होता तो गीता की बात आगे बढ़ती ही नहीं, मामला यहीं खत्म हो जाता, पर भगवान को ‘अर्जुन’ का यह विचार ‘अनार्यजुष्ट’ ‘अस्वर्ग्य’ और ‘अकीर्तिकर’ प्रतीत हुआ, उन्होंने अर्जुन का फटकार कर कहा-<poem style="text-align:center;">'''क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।''' |
'''क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप॥'''</poem> | '''क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप॥'''</poem> | ||
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15:39, 29 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण और महात्मा जी का अनासक्ति योग
गीता और भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में यह विचार नये या मौलिक नहीं हैं। हिन्दू सभ्यता और इतिहास पर आस्था न रखने वाले अंग्रेजी शिक्षित अन्य लेखकों ने भी ऐसे विचार प्रकट किये हैं। ऐसे विचारों का समय-समय पर खण्डन भी हुआ है, पर इस प्रकार के अन्य लेखकों में और महात्माजी में विशेष भेद हैं, महात्माजी अपने को आस्तिक हिन्दू कहते और मानते हैं, उनके कथन का उनके बहुसंख्यक अनुयायियों पर विशेष प्रभाव पड़ता है, इसलिये महात्माजी को ऐसे धार्मिक विषय पर बहुत सोच-समझकर व्यवस्था देनी चाहिये। महात्माजी का ‘अहिंसा धर्म’ उनके अनुयायिायों की दृष्टि में गीतोक्त धर्म से भी श्रेष्ठ हो सकता है, पर इसके लिये यह आवश्यक नहीं कि गीता से भी खींचतान कर वही ‘अहिंसा धर्म’ सिद्ध किया जाय, जो महात्माजी को अभिप्रेत है। किसी ग्रन्थ का वास्तविक अभिप्राय समझने और समझाने के लिये उपक्रम, उपसंहार और अभ्यास आदि पर ध्यान देने की नितान्त आवश्यकता होती है। महात्मा जी महाभारत युद्ध को ‘काल्पनिक’ कहते हैं, पर गीता और महाभारत को ध्यान पूर्वक पढ़ने से यह बात साफ समझ में आ जाती है कि महात्माजी जिस प्रकार के अहिंसात्मक सत्याग्रह का उपदेश आज दे रहे हैं, युद्ध के प्रारम्भ में ‘अर्जुन’ भी इसी ढंग के विचार प्रकट कर रहा था, वह स्वयं मार खाकर भी प्रतिपक्षियों पर शस्त्र उठाना नहीं चाहता था- क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। |