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− | यह सिद्धान्त परमात्मा की सर्वाश्रयता के विरुद्ध है। सबसे बड़ी समझने की यह बात है कि परमात्मा से भिन्न कोई वस्तु नहीं है- वस्तु मात्र को परमात्मा से ही अस्तित्व प्राप्त होता है। प्रकृति या परमाणु ऐसी कोई भी वस्तु परमात्मा के साथ-साथ अपना स्वतन्त्र स्वभाव सिद्ध अस्तित्व रखती हो, यह नहीं माना जा सकता। इसका तात्पर्य यही है कि जगत परमाणुओं से व प्रकृति से उत्पन्न नहीं हुआ- ‘असत् में से सत् हुआ है।’ परन्तु इस पर यह प्रश्न उठता है कि ‘कथमसत् सज्जायेत’- असत् में से सत् कैसे हो सकता है ? प्रयत्न बहुत ठीक है। पर असत् क्या चीज है ? | + | यह सिद्धान्त परमात्मा की सर्वाश्रयता के विरुद्ध है। सबसे बड़ी समझने की यह बात है कि परमात्मा से भिन्न कोई वस्तु नहीं है- वस्तु मात्र को परमात्मा से ही अस्तित्व प्राप्त होता है। प्रकृति या परमाणु ऐसी कोई भी वस्तु परमात्मा के साथ-साथ अपना स्वतन्त्र स्वभाव सिद्ध अस्तित्व रखती हो, यह नहीं माना जा सकता। इसका तात्पर्य यही है कि जगत परमाणुओं से व प्रकृति से उत्पन्न नहीं हुआ- ‘असत् में से सत् हुआ है।’ परन्तु इस पर यह प्रश्न उठता है कि '''‘कथमसत् सज्जायेत’'''- असत् में से सत् कैसे हो सकता है? प्रयत्न बहुत ठीक है। पर असत् क्या चीज है? |
− | प्रकृति का न होना, अणुओं का न होना, जगत का न होना यही असत् है। परमात्मा स्वयं सत् कहाँ नहीं है जो असत् में से, एक अद्वितीय सत् में से जगत को उत्पन्न करता है। इसलिये श्रुति ने मकड़ी (ऊर्णनाभि)- का दृष्टान्त दिया है- ‘यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते वा।’ जैसे मकड़ी अपने में से जाला फैलाती है, वैसे ही परमात्मा | + | प्रकृति का न होना, अणुओं का न होना, जगत का न होना यही असत् है। परमात्मा स्वयं सत् कहाँ नहीं है जो असत् में से, एक अद्वितीय सत् में से जगत को उत्पन्न करता है। इसलिये श्रुति ने मकड़ी (ऊर्णनाभि)- का दृष्टान्त दिया है- '''‘यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते वा।’''' जैसे मकड़ी अपने में से जाला फैलाती है, वैसे ही परमात्मा भी अपने में से ही जगत का जाल फैलाता है। परन्तु वास्तव में यह दृष्टान्त भी पूर्णरीति से लागू नहीं होता। मकड़ी अपने शरीर से जाला निकालती है, किन्तु परमात्मा तो शरीर नहीं है। परमात्मा स्वयं विकार पाकर जगत रूप बन जाता है, यह भी नहीं कहा जा सकता। कारण, परमात्मा में विकास का होना सम्भव नहीं। |
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12:18, 29 मार्च 2018 का अवतरण
श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण की होली
2-परमात्मा देशकृत, कालकृत और वस्तुकृत इन तीनों परिच्छेदों से रहित है। उसके विषय में यह नहीं कह सकते कि वह यहाँ है, वहाँ नहीं; या वहाँ है, यहाँ नहीं। यदि यह कहें कि वह सब स्थलों में है तो यह भी झूठी बात है, क्योंकि इससे स्थल उसका अधिष्ठान हो जाता है। वह किसी देश में आश्रय लेकर नहीं रहता; बल्कि देश ही उसके आश्रय पर निर्भर रहता है। इसी प्रकार परमात्मा भूत, भविष्य या वर्तमान किसी भी काल में नहीं था, नहीं है या नहीं होगा, यह भी नहीं कहा जा सकता। उसे काल के अन्तःस्थित मानने से काल उसका आधाररूप हो जाता है। यह सिद्धान्त परमात्मा की सर्वाश्रयता के विरुद्ध है। सबसे बड़ी समझने की यह बात है कि परमात्मा से भिन्न कोई वस्तु नहीं है- वस्तु मात्र को परमात्मा से ही अस्तित्व प्राप्त होता है। प्रकृति या परमाणु ऐसी कोई भी वस्तु परमात्मा के साथ-साथ अपना स्वतन्त्र स्वभाव सिद्ध अस्तित्व रखती हो, यह नहीं माना जा सकता। इसका तात्पर्य यही है कि जगत परमाणुओं से व प्रकृति से उत्पन्न नहीं हुआ- ‘असत् में से सत् हुआ है।’ परन्तु इस पर यह प्रश्न उठता है कि ‘कथमसत् सज्जायेत’- असत् में से सत् कैसे हो सकता है? प्रयत्न बहुत ठीक है। पर असत् क्या चीज है? प्रकृति का न होना, अणुओं का न होना, जगत का न होना यही असत् है। परमात्मा स्वयं सत् कहाँ नहीं है जो असत् में से, एक अद्वितीय सत् में से जगत को उत्पन्न करता है। इसलिये श्रुति ने मकड़ी (ऊर्णनाभि)- का दृष्टान्त दिया है- ‘यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते वा।’ जैसे मकड़ी अपने में से जाला फैलाती है, वैसे ही परमात्मा भी अपने में से ही जगत का जाल फैलाता है। परन्तु वास्तव में यह दृष्टान्त भी पूर्णरीति से लागू नहीं होता। मकड़ी अपने शरीर से जाला निकालती है, किन्तु परमात्मा तो शरीर नहीं है। परमात्मा स्वयं विकार पाकर जगत रूप बन जाता है, यह भी नहीं कहा जा सकता। कारण, परमात्मा में विकास का होना सम्भव नहीं। |