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यूरोप के इन द्वैतवादियों की अपेक्षा हमारे नैयायिक द्वैतवादी परमात्मा को अधिक निकट मानते थे। तथापि वे भी ‘घट के निर्माता’ और ‘त्रिभुवन विधाता’ का अपने-अपने कार्य के साथ का सम्बन्ध एक-सा ही मानते थे। जैसे कुम्भकार घड़ा है, वैसे ही परमात्मा विश्व की रचना कर उससे पृथक हो जाता है। जो परमात्मा को एक कुम्भकार के समान बाह्यस्थित होकर त्रिलोक को अपनी इच्छाशक्ति द्वारा काल-महाचक्र पर चलाते हुए देखते हों ताकि ऐसे परमात्मा के प्रति जिनकी बुद्धि या हृदय को संतोष होता हो, वे भले ही इस कल्पना में संलग्न रहें, परन्तु हमारी बुद्धि तो परमात्मा के स्वरूप के बाहर, उसकी अनन्तता में विरोधी प्रसंग उत्पन्न करने वाली किसी भी वस्तु को मान नहीं सकती। | यूरोप के इन द्वैतवादियों की अपेक्षा हमारे नैयायिक द्वैतवादी परमात्मा को अधिक निकट मानते थे। तथापि वे भी ‘घट के निर्माता’ और ‘त्रिभुवन विधाता’ का अपने-अपने कार्य के साथ का सम्बन्ध एक-सा ही मानते थे। जैसे कुम्भकार घड़ा है, वैसे ही परमात्मा विश्व की रचना कर उससे पृथक हो जाता है। जो परमात्मा को एक कुम्भकार के समान बाह्यस्थित होकर त्रिलोक को अपनी इच्छाशक्ति द्वारा काल-महाचक्र पर चलाते हुए देखते हों ताकि ऐसे परमात्मा के प्रति जिनकी बुद्धि या हृदय को संतोष होता हो, वे भले ही इस कल्पना में संलग्न रहें, परन्तु हमारी बुद्धि तो परमात्मा के स्वरूप के बाहर, उसकी अनन्तता में विरोधी प्रसंग उत्पन्न करने वाली किसी भी वस्तु को मान नहीं सकती। | ||
− | हमारा हृदय कभी भी यह बात सहन नहीं कर सकता कि ब्रह्माण्ड में कोटि-कोटि जीवों को भरकर परमात्मा स्वयं उसके बाहर, उन जीवों से अलग पड़ा रहता है। हमें तो जगत में सर्वत्र परमात्मा की ही होली मची हुई मालूम होती है। वह इस ‘होली’ में स्वयं पूर्णरस से रमण करता है और जीवों को रमण कराता है। इस होली की अद्भुतता का वर्णन नहीं किया जा सकता। | + | हमारा हृदय कभी भी यह बात सहन नहीं कर सकता कि ब्रह्माण्ड में कोटि-कोटि जीवों को भरकर परमात्मा स्वयं उसके बाहर, उन जीवों से अलग पड़ा रहता है। हमें तो जगत में सर्वत्र परमात्मा की ही होली मची हुई मालूम होती है। वह इस ‘होली’ में स्वयं पूर्णरस से रमण करता है और जीवों को रमण कराता है। इस होली की अद्भुतता का वर्णन नहीं किया जा सकता। विज्ञान का प्रत्येक प्रयत्न भगवान की लीला के आश्चर्य को अधिकाधिक गम्भीर और उद्दीप्त कर रहा है। कवि ने यथार्थ लिखा है- '''‘अचरज लखियो न जाई’''' |
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11:58, 29 मार्च 2018 के समय का अवतरण
कृष्णांक
श्रीकृष्ण की होली
यूरोप के इन द्वैतवादियों की अपेक्षा हमारे नैयायिक द्वैतवादी परमात्मा को अधिक निकट मानते थे। तथापि वे भी ‘घट के निर्माता’ और ‘त्रिभुवन विधाता’ का अपने-अपने कार्य के साथ का सम्बन्ध एक-सा ही मानते थे। जैसे कुम्भकार घड़ा है, वैसे ही परमात्मा विश्व की रचना कर उससे पृथक हो जाता है। जो परमात्मा को एक कुम्भकार के समान बाह्यस्थित होकर त्रिलोक को अपनी इच्छाशक्ति द्वारा काल-महाचक्र पर चलाते हुए देखते हों ताकि ऐसे परमात्मा के प्रति जिनकी बुद्धि या हृदय को संतोष होता हो, वे भले ही इस कल्पना में संलग्न रहें, परन्तु हमारी बुद्धि तो परमात्मा के स्वरूप के बाहर, उसकी अनन्तता में विरोधी प्रसंग उत्पन्न करने वाली किसी भी वस्तु को मान नहीं सकती। हमारा हृदय कभी भी यह बात सहन नहीं कर सकता कि ब्रह्माण्ड में कोटि-कोटि जीवों को भरकर परमात्मा स्वयं उसके बाहर, उन जीवों से अलग पड़ा रहता है। हमें तो जगत में सर्वत्र परमात्मा की ही होली मची हुई मालूम होती है। वह इस ‘होली’ में स्वयं पूर्णरस से रमण करता है और जीवों को रमण कराता है। इस होली की अद्भुतता का वर्णन नहीं किया जा सकता। विज्ञान का प्रत्येक प्रयत्न भगवान की लीला के आश्चर्य को अधिकाधिक गम्भीर और उद्दीप्त कर रहा है। कवि ने यथार्थ लिखा है- ‘अचरज लखियो न जाई’ |