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भगवान अनन्त लीलाओं में सुदामा का प्रसंग भी अपनी एक विचित्र मोहकता धारण किये हुए है। पुराने सहपाठी सुदामा को दरिद्र दीन दशा में देख भगवान के हृदय में करुणरस का जो प्रवाह उमड़ पड़ा, दया का जो दरिया बहने लगा, भगवान कृष्णचंद्र के रहस्यमय चरित्र में वह भक्तों के लिए परम पावन वसतु है- दुखी आत्माओं को शान्ति देने वाली यह एक अति अनुपम कथा है। | भगवान अनन्त लीलाओं में सुदामा का प्रसंग भी अपनी एक विचित्र मोहकता धारण किये हुए है। पुराने सहपाठी सुदामा को दरिद्र दीन दशा में देख भगवान के हृदय में करुणरस का जो प्रवाह उमड़ पड़ा, दया का जो दरिया बहने लगा, भगवान कृष्णचंद्र के रहस्यमय चरित्र में वह भक्तों के लिए परम पावन वसतु है- दुखी आत्माओं को शान्ति देने वाली यह एक अति अनुपम कथा है। | ||
<center>'''सुदामा की कथा''' </center><br /> | <center>'''सुदामा की कथा''' </center><br /> | ||
− | सुदामा एक अत्यंत दीन ब्राह्मण थे। बालकपन में उसी गुरु के पास विद्याध्ययन करने गये थे जहाँ भगवान श्रीकृष्णचंद्र अपने जेठे भाई बलरामजी के साथ शिक्षा ग्रहण करने के लिए गये थे। वहाँ श्रीकृष्णचंद्र के साथ इनका खूब संग रहा। इन्होंने गुरुजी की बड़ी सेवा की। गुरुपत्नी की आज्ञा से एक बार सुदामा कृष्णचंद्र के साथ जंगल से लकड़ी लाने गये। जंगल में जाना था कि आंधी पानी आ गया। अन्धकार इतन सघन छा गया कि अपना हाथ अपनी आंखें नहीं दीखता था। रातभर ये लोग उस अंधेरी रात में वन-वन भटकते रहे परनतु रास्ता मिला ही नहीं। प्रात:काल सदय हृदय सान्दीपनि गुरु इन्हें खोजते जंगल में आये और घर लिवा ले गये। गुरुगृह आने पर सुदामा ने एक सती ब्राह्मण कन्या से विवाह किया। सुदामा की पत्नी थी बड़ी पतिव्रता-अनुपम साध्वी। उसे किसी बात का कष्ट न था, चिन्ता न थी, यदि थी तो केवल अपने पतिदेव की दरिद्रता की। वह जानती थी भगवान श्रीकृष्ण उसके पति के प्राचीन सखा हैं- गुरुकुल सहाध्यायी हैं। वह सुदामाजी को इसकी समय-समय पर चेतावनी भी दिया करती थी, परन्तु सुदामजी इसे तनिक भी कान नहीं करते- कभी ध्यान नहीं देते थे। एक बार उस पतिव्रता ने सुदामा से बड़ा आग्रह किया कि आप द्वारकाजी में श्रीकृष्ण से मिलिये, उन्हें अपना दु:ख सुनाइये। भगवान दयासागर हैं, हमारा दु:ख अवश्य दूर करेंगे। जरा हमारी इस दीन-हीन दशा की खबर अपने प्यारे सखा कृष्ण को तो देना- ‘या घरते न गयो | + | सुदामा एक अत्यंत दीन ब्राह्मण थे। बालकपन में उसी गुरु के पास विद्याध्ययन करने गये थे जहाँ भगवान श्रीकृष्णचंद्र अपने जेठे भाई बलरामजी के साथ शिक्षा ग्रहण करने के लिए गये थे। वहाँ श्रीकृष्णचंद्र के साथ इनका खूब संग रहा। इन्होंने गुरुजी की बड़ी सेवा की। गुरुपत्नी की आज्ञा से एक बार सुदामा कृष्णचंद्र के साथ जंगल से लकड़ी लाने गये। जंगल में जाना था कि आंधी पानी आ गया। अन्धकार इतन सघन छा गया कि अपना हाथ अपनी आंखें नहीं दीखता था। रातभर ये लोग उस अंधेरी रात में वन-वन भटकते रहे परनतु रास्ता मिला ही नहीं। प्रात:काल सदय हृदय सान्दीपनि गुरु इन्हें खोजते जंगल में आये और घर लिवा ले गये। गुरुगृह आने पर सुदामा ने एक सती ब्राह्मण कन्या से विवाह किया। सुदामा की पत्नी थी बड़ी पतिव्रता-अनुपम साध्वी। उसे किसी बात का कष्ट न था, चिन्ता न थी, यदि थी तो केवल अपने पतिदेव की दरिद्रता की। वह जानती थी भगवान श्रीकृष्ण उसके पति के प्राचीन सखा हैं- गुरुकुल सहाध्यायी हैं। वह सुदामाजी को इसकी समय-समय पर चेतावनी भी दिया करती थी, परन्तु सुदामजी इसे तनिक भी कान नहीं करते- कभी ध्यान नहीं देते थे। एक बार उस पतिव्रता ने सुदामा से बड़ा आग्रह किया कि आप द्वारकाजी में श्रीकृष्ण से मिलिये, उन्हें अपना दु:ख सुनाइये। भगवान दयासागर हैं, हमारा दु:ख अवश्य दूर करेंगे। जरा हमारी इस दीन-हीन दशा की खबर अपने प्यारे सखा कृष्ण को तो देना- ‘या घरते न गयो कबहूँ पिय टूटो तवा अरु फूटी कठौती’। सुदामाजी केवल भाग्य को भरपेट कोसा करते थे । |
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01:20, 14 सितम्बर 2017 का अवतरण
श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण और सुदामा
त्रिभुवनकमनं तमालवर्ण तमालवर्णं आनंदकन्द वृंदावन चन्द्र भगवान श्रीकृष्ण का पवित्र चरित्र सब भावों से परिपूर्ण है। जिस दृष्टि से उसे देखा जाये उसी से वह पूरा उतरता है। वह वृंदावन विहारी मुरलीधारी वनवारी किस रस का आश्रय नहीं है, किस भाव का पात्र नहीं है ? वह स्नेहमूर्ति कन्हैया प्रेम का अगाध समुद्र है, सख्यका अनन्त सागर है। आज हम अपने प्रेमी पाठकों के सामने उसकी एक सुन्दर लीला की थोड़ी सी झांकी कराना चाहते हैं। भगवान अनन्त लीलाओं में सुदामा का प्रसंग भी अपनी एक विचित्र मोहकता धारण किये हुए है। पुराने सहपाठी सुदामा को दरिद्र दीन दशा में देख भगवान के हृदय में करुणरस का जो प्रवाह उमड़ पड़ा, दया का जो दरिया बहने लगा, भगवान कृष्णचंद्र के रहस्यमय चरित्र में वह भक्तों के लिए परम पावन वसतु है- दुखी आत्माओं को शान्ति देने वाली यह एक अति अनुपम कथा है। सुदामा एक अत्यंत दीन ब्राह्मण थे। बालकपन में उसी गुरु के पास विद्याध्ययन करने गये थे जहाँ भगवान श्रीकृष्णचंद्र अपने जेठे भाई बलरामजी के साथ शिक्षा ग्रहण करने के लिए गये थे। वहाँ श्रीकृष्णचंद्र के साथ इनका खूब संग रहा। इन्होंने गुरुजी की बड़ी सेवा की। गुरुपत्नी की आज्ञा से एक बार सुदामा कृष्णचंद्र के साथ जंगल से लकड़ी लाने गये। जंगल में जाना था कि आंधी पानी आ गया। अन्धकार इतन सघन छा गया कि अपना हाथ अपनी आंखें नहीं दीखता था। रातभर ये लोग उस अंधेरी रात में वन-वन भटकते रहे परनतु रास्ता मिला ही नहीं। प्रात:काल सदय हृदय सान्दीपनि गुरु इन्हें खोजते जंगल में आये और घर लिवा ले गये। गुरुगृह आने पर सुदामा ने एक सती ब्राह्मण कन्या से विवाह किया। सुदामा की पत्नी थी बड़ी पतिव्रता-अनुपम साध्वी। उसे किसी बात का कष्ट न था, चिन्ता न थी, यदि थी तो केवल अपने पतिदेव की दरिद्रता की। वह जानती थी भगवान श्रीकृष्ण उसके पति के प्राचीन सखा हैं- गुरुकुल सहाध्यायी हैं। वह सुदामाजी को इसकी समय-समय पर चेतावनी भी दिया करती थी, परन्तु सुदामजी इसे तनिक भी कान नहीं करते- कभी ध्यान नहीं देते थे। एक बार उस पतिव्रता ने सुदामा से बड़ा आग्रह किया कि आप द्वारकाजी में श्रीकृष्ण से मिलिये, उन्हें अपना दु:ख सुनाइये। भगवान दयासागर हैं, हमारा दु:ख अवश्य दूर करेंगे। जरा हमारी इस दीन-हीन दशा की खबर अपने प्यारे सखा कृष्ण को तो देना- ‘या घरते न गयो कबहूँ पिय टूटो तवा अरु फूटी कठौती’। सुदामाजी केवल भाग्य को भरपेट कोसा करते थे । |