श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
67. बल्वल वध
बल्वल भी विचित्र ही था। वह शिव भक्त था। भगवान भोलेनाथ का आशीर्वाद प्राप्त था उसे। सुर भी उससे संग्राम करने का साहस नहीं कर सकते थे। शिव के वरदान के प्रभाव से किसी का भी शाप उसका कोई अनिष्ट नहीं कर सकता था। लेकिन उसे धुन थी- 'दानव देह से ही मुझे मुक्त होना है।' दानव देह, रजोगुण विशिष्ट तमोगुणी स्वभाव। इन्द्रिय-निग्रह और मनोसंयम की बात ही सुनना स्वीकार नहीं। सत्संग की चर्चा दूर- अपने पांचजन्य उपद्वीप में उसने पातालादि अधोलोकों से बुलाकर दैत्य-दानव बसा लिये थे। कुसंग, मांस-मदिरा का सेवन और निश्चय यह कि इसी प्रकार मुझे मोक्ष प्राप्त करना है।' 'मैं ही साधना करूँगा तो ये भारतवर्ष के ऋषि-मुनि क्या करेंगे?' बल्वल अट्टहास करके कहता- 'हम असुरों के लिए मोक्ष का मार्ग ही दूसरा है।' 'मोक्ष के प्रदाता हैं श्रीहरि और वे कृपा करके ही मुक्त नहीं करते, क्रुद्ध होकर भी मुक्त ही करते हैं।' बल्वल की इस बात का कोई खण्डन कर नहीं सकता था। अब बल्वल का अपना तर्क था- 'श्रीहरि को संतुष्ट करना तो बहुत कठिन है। वे प्रेम से प्रसन्न होते हैं और हम असुरों का प्रेम अपने प्रिय देह में, भोग में, परिवार में सहज स्वाभाविक है। अब हरि में प्रेम तो होने से रहा, किन्तु उन्हें क्रुद्ध कर देना सरल है। क्रुद्ध तो हम किसी को भी कर दे सकते हैं। हरि हैं भक्तवल्सल, भक्तों की पीड़ा वे सह नहीं पाते। अतः उनके भक्तों, आश्रितों को तंग करो और वे क्रुद्ध हुए।' 'इस सहस्रों मुनियों- जटा दाढ़ी धारियों में कोई तो भक्त होगा।' बल्वल अट्टहास करता था- 'ये धर्म सत्र में लगे हैं और हरि धर्म के स्वामी हैं। देखता हूँ कि ये सब दढियल कब तक उन्हें नहीं पुकारते।' ऋषियों का धैर्य, उनकी क्षमा असीम थी। बल्वल पर उनमें-से एक ने क्रोध नहीं किया। यज्ञपुरुष भगवान नारायण से प्रार्थना करने की बात तो दूर, वे सब मथुरा भी नहीं गये। जब भगवान वासुदेव मथुरा विराजमान थे। जबकि सब पर यह सत्य प्रकट था कि वे जनार्दन असुर संहार के लिए ही अवतीर्ण हुए हैं। बल्वल इन ऋषियों की क्षमा से लगभग हताश हो चुका था, जब महाराज उग्रसेन का अवश्मेघीय अश्व, उसे प्रयाग में त्रिवेणी पर पानी पीते दीख गया था। अश्वहरण उसने किया था। दानव-दैत्यों के उद्धार के लिए, किन्तु व्यक्ति को अपना ही साधन मुक्त करता है। साधनान्तर प्रायः श्रेय प्रदाता नहीं होता। बल्वल के उस उद्योग से उसके पुत्र, मंत्री आदि का तो उद्धार समर-भूमि में हो गया किन्तु स्वयं बल्वल वंचित रह गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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