श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
67. बल्वल वध
श्रीकृष्णचन्द्र के युद्ध-भूमि में आ जाने पर जब अपने ही आराध्य भगवान पुरारि ने बल्वल को युद्ध न करके अश्व लौटा देने का निर्देश किया, आराध्य के आदेश की अवज्ञा वह नहीं कर सकता था। उसे लगा कि उसके उद्धार का मार्ग उसके द्वारा अपनाये उपाय में ही निकलेगा। अतः नैमिषारण्य के ऋषियों को तंग करना उसने नहीं छोड़ा। 'इन तपस्वियों को मारना व्यर्थ हैं।' पर्व का समय आ गया। ऋषियों ने यज्ञारंभ किया ही था कि प्रचण्ड आँधी चलने लगीं। धूलि की वर्षा होने लगी। शीघ्र ही चारों ओर दुर्गन्ध फैल गयी। मल-मूत्रादि की वर्षा के साथ गगन में त्रिशूल लिये पर्वताकार घोर कृष्णवर्ण, ताम्र के समान लाल श्मश्रु-केश, भयानक भौहों एवं दाढ़ों से युक्त मुख वाला गर्जना करता बल्वल दिखलायी पड़ा। भगवान बलराम ने अपने दिव्यायुधों का स्मरण किया। स्मरण करते ही वे उपस्थित हो गये। हल से आकाशचारी दानव को खींचकर धरा पर पटका और उसके सिर पर मुशक धमक दिया। जैस पर्वत पर वज्र पड़ा हो, बल्वल का सिर फट गया। वह चीत्कार करता गिरा। रक्त की धारा सिर से चल पड़ी। छटपटाकर शान्त हो गया। ऋषियों, मुनियों का संकट सदा को समाप्त हो गया। सबने स्तुति की श्रीसंकर्षण की और अनुरोध किया- 'यह सामान्य मानव जैसा तपस्वी तीर्थयात्री का वेश आपके उपयुक्त नहीं है। आप हम ब्राह्मणों की अर्चा स्वीकार करें।' भगवान अनन्त में ऋषियों का आग्रह मान लिया। महर्षियों ने उन्हें दिव्य, कभी मलिन न होने वाले नील कौशेय वस्त्र दिये। उनका ऐसे ही पुरुषसूक्त से अभिषेक किया जैसे वृत्रवध के पश्चात अश्वमेध यज्ञ करने पर इन्द्र का अभिषेक ऋषियों ने किया था। सदा अम्लान रहने वाले सरोज की वैजयंती माला, दिव्य आभूषणों से उन्हें अलंकृत किया। ऋषियों से सत्कृत होकर, उनकी अनुमति लेकर वहाँ से श्रीसंकर्षण अपने साथ के यात्रियों के साथ तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े और कौशिकी के तट से पुनः उत्तराखण्ड की ओर चले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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