श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
37. विश्वजित-यज्ञ
इलावृतवर्ष में पुरुष का प्रवेश वर्जित है। वहाँ प्रवेश करते ही भगवान शंकर के कारण पुरुष स्त्री हो जाते हैं। वहाँ की रानी चन्द्रभागा ने श्रीहरि के पुत्र को भेंट भेज दी। मन्दराचल तो पावनतम तीर्थों से परिपूर्ण है। आदिराज पृथु की तपस्थली स्वायम्भुव मनु की तपोभूमि, हिरण्यकशिपु का तपोवन, इन सबका दर्शन-यहाँ स्नान का सुअवसर सबको प्राप्त हुआ। वेदनगर में मूर्तिमान श्रुतियों तथा भगवती शारदा से स्तुत-पूजित होकर श्रीकृष्णचन्द्र द्वारिका चले गये। पिता के चले जाने पर कामदुध नदी के तट पर बसे बसन्तमालती नगर के नरेश गन्धर्वराज पंतग से प्रद्युम्न का संग्राम प्रारम्भ हो गया। मायावी गन्धर्व गद से युद्ध में आहत होकर मूर्च्छित होने पर भी नगर में प्रविष्ट होकर युद्ध की तैयारी में लग गया। तभी भगवान बलराम आ पहुँचे। उन हलधर के क्रोध में पुरी ही नष्ट हो गयी होती तो यदि गन्धर्वराज शरणागत होकर न आ जाता। श्रीसंकर्षण यह विजय दिलाकर द्वारिका चले गये। मधुशधारा के तट पर महाराज शक्रसख का शासन था। देवता संकट के समय उनका आश्रय लेते थे। असुर जब स्वर्ग त्यागने के लिये विवश करते सुर, यहीं आकर छिपते थे। प्रद्युम्न ने उद्धव को उनके पास भेजा कि वे महाराज उग्रसेन को कर दे दें; किन्तु शक्रसख ने उद्धव को बन्दी बना लिया। वे क्रुद्ध हो उठे- 'देवता भी मेरी पूजा करते हैं। मैं लोकपाल हूँ। उग्रसेन को मुझे कर देना चाहिए।' देवर्षि नारद ने समझाया- परंतु गर्व किसे समझने देता है। युद्ध में जब गद ने पकड़कर फेंक दिया नगर में और मूर्च्छित हो गये तब समझ गये। उद्धव को आगे करके भेंट लेकर प्रद्युम्न के पास पहुँचे। अरुणोदा नदी तट पर यादववाहिनी का शिविर पड़ा था तब इन्द्र ने आकाश में आकर प्रद्युम्न को सुमेरु शिखर बसी लीलावती नगरी के अधिपति विद्याधरराज सुकृति की कन्या के स्वयंवर में जाने की प्रेरणा दी। देवराज इन्द्र प्रद्युम्न को भाइयों के साथ वहाँ ले गये। राजकन्या प्रद्युम्न को देखते ही मूर्च्छित हो गयी प्रेमविभोर होकर। उनके कण्ठ में जयमाला डाली उसने। अनेक देवता, विद्याधर राजकुमारी का वरण करने आये थे। विफलता ने उन्हें रुष्ट किया, किन्तु प्रद्युम्न से संघर्ष करके पराजय ही तो उन्हें मिलनी थी। स्वयं देवराज प्रद्युम्न के साथ थे इस संघर्ष में। विजय अभियान पूरा हो गया। प्रद्युम्न ससैन्य लौटे। उद्धव ने आगे आकर महाराज उग्रसेन को समाचार दिया। द्वारिका से महाराज स्वयं वाद्य, गीत तथा ब्राह्मणों के साथ स्वागत करने आगे निकले। महाराज उग्रसेन के यज्ञ में सब ऋषि, महर्षि पधारे। सभी देवता और तीर्थ मूर्तिमान होकर सम्मिलित हुए। सब नरेश आये। यज्ञ सविधि निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। अवभृथ स्नान किया सबने। दान तथा उपहार से सबका पूरा सत्कार किया उग्रसेन ने। सभी तीर्थ अपने अंशरूप से वहाँ रह गये। तीर्थों का पिण्डीभाव होने से वह यज्ञस्थली पिण्डारक क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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