श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
30. नरक-निधन
नरकासुर को बहुत क्रोध आया गरुड़ पर। उसने अपनी प्रलयंकारी शक्ति पटक दी; किन्तु आघात से तो गरुड़ का शरीर कम्पित भी नहीं हुआ। भौमासुर ने वाणवर्षी पार्जन्यास्त्र का प्रयोग किया; किन्तु श्रीकृष्ण के वाणध्वन्सी सावित्रास्त्र ने उसे व्यर्थ कर दिया। 'आप चक्र क्यों नहीं उठाते। मार दीजिये इसे!' सत्यभामा जी कौतुकपूर्वक युद्ध देख रही थीं; किन्तु जब भौम का एक अद्भुत बाण लहराता, तिरछी गति से चलता आया और श्रीकृष्णचन्द्र के मुकुटाग्र को स्पर्श करता निकल गया तो वे भयभीत होकर पुकार उठीं। इसी पुकार की तो प्रतीक्षा थी। श्रीकृष्णचन्द्र ने चक्र उठा लिया। भौमासुर ने प्रज्वलित त्रिशूल उठाया था; किन्तु अब उसको अवसर कहाँ मिलना था। चक्र ने उसका मस्तक काट फेंका। नगर से नरकासुर के पुत्र को लेकर भू-देवी निकलीं। उन्होंने श्रीकृष्ण की स्तुति की और अपने कर्णों से ज्योतिर्मय कुण्डल उतारकर आगे बढ़ा दिये- 'ये अदिति देवी के कुण्डल।' श्रीकृष्णचन्द्र ने बिना हिचके उनके हाथों पर-से कुण्डल उठा लिये-'तुम्हें उन पूज्या के आभरण की स्पृहा शोभा नहीं देती।' झिड़की उचित थी। भूदेवी अन्ततः पुत्रवधू ही होती हैं। उन्हें स्नेह पूर्वक अपने आभूषण देवी अदिति देतीं तो बात दूसरी थी; किन्तु पुत्र उन पूजनीया के आभूषण छीन लाया- अपराध तो था ही उनका धारण करना। उस समय भी पुत्र की भर्त्सना करके कुण्डल लौटा दिये जा सकते थे, तब कदाचित इकलौते पुत्र को मरना न पड़ता; किन्तु अब तो जो होना था, हो चुका था। 'यह प्रचेता का छत्र!' वर्षाकालीन मेघ के समान वह वरुणदेव का विशाल अमृत की फुहारें बरसते रहने वाला छत्र भूदेवी ने मस्तक झुकाये ही आगे बढ़ा दिया- देवताओं का मणि-मेरु भी आप ले जायँ। अपराधी को आपने मार ही दिया, मुझे जो दण्ड देना हो, मैं प्रस्तुत हूँ; किन्तु यह आपका अबोध पौत्र है- नरक का पुत्र। अब इस अनाश्रय के मस्तक पर तो अपना अभय कर रखें।' सत्यभामा के नेत्र झरने लगे थे। उन्हें लगता था कि उनका अपना ही पुत्र मारा गया है। गरुड़ की पीठ से उतरकर उन्होंने भौमासुर के पुत्र को गले लगा लिया- 'बेटा! तू निर्भय है।' 'अम्ब! आप दोनों नगर में नहीं पधारेंगे?' उस दैत्य युवक ने अत्यन्त विनम्र होकर कहा। 'नहीं क्यों चलेंगे।' सत्यभामा जी ने देखा द्वारिकाधीश की ओर। 'सहस्रों दुःखिया बालिकाएँ तुम्हारी करुणा की प्रतीक्षा कर रही हैं।' भूदेवी ने कहा- 'पुत्र को मैं इस अनर्थ से नहीं रोक सकी; किन्तु तुम आ गयी हो तो मेरे बेटे के पाप को पुण्य में परिवर्तित कर दो।' 'कौन हैं वे? कहाँ हैं? कोई दुःखी होकर कृपा की कामना करे और श्रीकृष्णप्रिया अन्यत्र रुकी रहें, यह तो सम्भव नहीं। भू-देवी आगे हुई और सत्यभामा जी चलीं तो श्रीकृष्णचन्द्र को साथ देना ही था उनका। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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