श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
30. नरक-निधन
सबकी सब एक साथ भूमि पर लेटकर प्रणिपात करने लगीं। सबके नेत्रों से अश्रुधारा झरने लगी। सबने अंजलि बाँधकर घुटनों के बल बैठकर एक साथ प्रार्थना की- 'महारानी! हम अनाश्रया हैं। असुर ने हमारा अपहरण किया। कौन विश्वास करेगा कि हम धर्षिता नहीं हैं। हमारे माता-पिता-भाई-स्वजन- अब किसी में हमें अपने गृह में स्थान देने का साहस नहीं। आप यदि अपने श्रीचरणों में अपनी इन दासियों को आश्रय देने का अनुग्रह करें, हम जन्म-जन्म........।' कण्ठ भरे थे, वाणी निकल नहीं पा रही थी- 'अब सृष्टि में हमारे लिए और कहीं आश्रय नहीं। 'तुम सब मेरी अनुजा।' महारानी सत्यभामा ने अपूर्व गौरव एवं महत्तम औदार्य से कहा- 'ये द्वारिकाधीश, ये अनाश्रयों के आश्रय, अनार्थों के नाथ हैं- कौन कहेगा यदि ये तुम जैसी अग्निशिखा के समान पावन कुमारियों का पाणि-ग्रहण करके तुम्हें सनाथ नहीं करते। तुम सबका स्थान द्वारिका के इनके अन्तःपुर में है और सब मेरी बहिनें हो।' 'देवि! इनका पाणि-ग्रहण तो ये द्वारिका में करेंगे।' सत्यभामा जी ने भू-देवी से कहा- 'किन्तु इनका यह व्रत और यह वेश मैं सह नहीं सकती। इन्हें श्रीद्वारिकाधीश की वाग्दत्ता के उपयुक्त आप सज्जित करें।' 'महारानी की जय! कृपामयी महारानी की जय!' कुमारियों के कण्ठ भले न बोल सकें भाव-विह्वल; किन्तु उनके हृदय पुकार रहे थे। सबने भूमि पर मस्तक धर दिया था। महारानी सत्यभामा ने अपने स्वामी से संकेत से भी नहीं पूछा। किसी को अपनाने में, किसी पर कृपा करने में भी क्या इन करुणावरुणालय से पूछने की आवश्यकता है। श्रीकृष्णचन्द्र ने नरकासुर के पुत्र को सिंहासन पर बैठाकर स्वयं उसका तिलक किया और उसने जो आग्रह करके भेंट दी, स्नेहपूर्वक उसे स्वीकार कर लिया। क्योंकि उसी भेंट की अस्वीकृति का अर्थ था उसे अपनाया नहीं गया। उसने ऐरावत कुल में उत्पन्न चार दाँत वाले श्वेत चौंसठ गज दिये, दूसरे सहस्रों देव-दुर्वल गज, अश्व, रत्न दिये। उन्हें तथा उन सोलह सहस्र कुमारियों को द्वारिका भेजा श्रीकृष्ण ने और स्वयं सत्यभामा के साथ गरुड़ पर बैठे। अमरावती जाकर स्वर्ग की वस्तुएँ देनी थी वहाँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इनकी संख्या कुछ ग्रंथों में सोलह सहस्र वर्णित है।
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