श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
अधिकार और कर्तव्यभगवान की आनन्दमयी शक्ति के इस दिव्य प्रेम-सदन में दूसरे साधारण नर-नारियों का प्रवेश सर्वथा निषिद्ध है। महामन्दिर में प्रवेश करने वाले को ड्योढ़ी पर पहरा देने वाली सखी को प्रवेश पत्र दिखलाना पड़ता है और श्रीकृष्ण प्रेम-रस में डूबी हुई बुद्धि रूपी उस प्रवेश पत्री को वही प्राप्त कर सकता है, जो अपना तन-मन-धन प्रियतम प्रभु के अर्पणकर, सर्वथा कामना शून्य होकर, काम-क्रोध-लोभादि विकारों से रहित होकर, वैराग्यरूप परम सुन्दर वस्त्रों को धारणकर, दैवी गुणों के अलंकारों से सुसज्जित होकर प्रेम की वेदी पर अपनी बलि चढ़ा देता है-
अतएव इसमें कोई भी मनुष्य कदापि श्रीकृष्ण नहीं बन सकता, चाहे वह महान आचार्य, उपदेशक, प्रेमी, जीवन्मक्त या दिव्य भाव वाला ही क्यों न समझा जाता हो; इसलिये यदि कोई मनुष्य श्रीकृष्ण बनकर गोपी भाव से उपासना कराने का दावा करे तो उससे सदा दूर रहना चाहिये। विशेष करके स्त्रियों के द्वारा गोपी भाव से अपनी उपासना की बात कहने वाले मनुष्य को तो दुराचारी ही मानना चाहिये। साधक पुरुष के लिये तो, स्त्री की बातें तो दूर रहीं, स्त्रियों का सगं करने वाले का सगं भी त्याज्य है- यह प्रेम अत्यन्त ही दुर्लभ है। इसमें देवताओं का भी अधिकार नहीं है। जो भगवान के व्रज रस के रसिक हैं, व्रज भाव के भावुक हैं, व्रज प्रेम के प्रेमी हैं, वे भक्त ही इस अत्यन्त उच्च प्रेम रस का पान किया करते हैं। गोपीपदाश्रय करके गोपी भाव का अवलम्बन करने से ही दुर्लभ, काम गन्धहीन, विषयाभिलाषा शून्य, दिव्य प्रेम और प्रेमस्वरूप प्रेमाधार श्यामसुन्दर की प्राप्ति हो सकती है। श्रीचैतन्यचरितामृत में कहा गया है- |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ श्रीमद्भा. 11/14/29
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