श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेमभक्ति में भगवान और भक्त का सम्बन्धभगवान निर्गुण भी हैं, सगुण भी; निराकार भी हैं, साकार भी; वे निष्क्रिय, निर्विशेष, निर्लिप्त और निराधार होते हुए ही सृष्टि-स्थिति-संहार करने वाले, सविशेष, सर्वव्यापी और सर्वाधार हैं। सांख्योक्त परस्परविलक्षण अनादि पुरुषे और प्रकृति, चेतन और अचेतन दोनों शक्तियाँ, जिनसे सारा जगत् उत्पन्न होता है, भगवान की ही परा और अपरा प्रकृतियाँ हैं। इन दो प्रकृतियों के द्वारा वस्तुतः भगवान ही अपने को प्रकट कर रहे हैं। वे सबमें रहकर भी सबसे परे हैं। वे ही सबको देखनेवाले उपद्रष्टा हैं, वे ही यथार्थ सम्मति देने वाले अनुमन्ता हैं, वे ही सबका भरण-पोषण करने वाले भर्ता हैं, वे ही जीवरूप से भोक्ता हैं, वे ही सर्वलोकमहेश्वर हैं, वे ही सबमें व्याप्त परमात्मा हैं और वे ही समस्त ऐश्वर्य-माधुर्य से परिपूर्ण भगवान हैं। वे एक होने पर भी अनेक रूपों में विभक्त हुए-से जान पड़ते हैं। अनेक रूपों में व्यक्त होने पर भी एक ही हैं। व्यक्त, अव्यक्त और अव्यक्त से भी परे सनातन अव्यक्त वे ही हैं; क्षर, अक्षर और अक्षर से भी उत्तम पुरुषोत्तम वे ही हैं। वे अपनी ही महिमा से महिमान्वित हैं, अपने ही गौरव से गौरवान्वित हैं और अपने ही प्रकाश से प्रकाशित हैं। इन भगवान का यथार्थ स्वरूपज्ञान या दर्शन इनकी कृपा के बिना नहीं हो सकता। ये जिन पर अनुग्रह करके अपना ज्ञान कराते हैं, वे ही इसे जान सकते हैं और कृपा भक्तों पर ही व्यक्त होती है। भक्ति रहित कर्म से, प्रेम रहित ज्ञान से भगवान का यथार्थ स्वरूप नहीं जानने में आता। निष्काम कर्म से भगवान का ऐश्वर्य रूप जाना जाता है और तत्त्वज्ञान से उनका अक्षर परब्रह्मरूप; परंतु उनके मधुरातिमधुर पुरुषोत्तम भाव का तो अनन्य प्रेमभक्ति से ही साक्षात्कार होता है। वैधी भक्ति करते-करते जब वह दिव्य प्रेमरूप में परिणत होती है; जब भगवान की अचिन्त्य शक्ति और अनिर्वचनीय ऐश्वर्य को जानकर भक्त केवल उन्हीं को परम गति, परम आश्रय और परम शरण्य मानकर बुद्धि से, मन से, चित्त से, इन्द्रियों से और शरीर से सब भाँति सर्वथा अपने को उनके चरणों में निवेदन कर देता है; जब वह उन्हीं को मन दे देता है, उन्हीं में बुद्धि लगा देता है, उन्हीं को जीवन अर्पण कर देता है, उन्हीं की चर्चा करता है, उन्हीं के नाम-गुण का गान करता है, उन्हीं में सन्तुष्ट रहता है और उन्हीं में रमण करता है; इस प्रकार जब देह-मन-प्राण, काल-कर्म-गुण, लौकिक और पारलौकिक, भोग, आसक्ति, कामना, वासना - सब कुछ उनके अर्पण कर देता है, तब भगवान उस प्रेम से भजने वाले भक्त को अपने वह दिव्य बुद्धि दे देता हैं, जिससे वह अनायास ही उनको समग्र रूप में- पुरुषोत्तमरूप में पा जाता है। |
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