श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेमभक्ति में भगवान और भक्त का सम्बन्धनिर्गुण अक्षरब्रह्म, विकारशील और जड अपरा प्रकृति में स्थित निर्विकार परा प्रकृति रूप जीवात्मा, अपरा प्रकृति और उसके विकार से उत्पन्न उत्पत्ति और विनाश धर्मवाले सब पदार्थ, भूतों का उद्भव और अभ्युदय करने वाला विसर्गरूप कर्म, व्यक्त जगत् का अभिमानी सूत्रात्मा अधिदैव और इस शरीर में अन्तर्यामी रूप से स्थित विष्णुरूप अधियज्ञ- ये सब उस नित्य-निर्विकार सच्चिदानन्दघन भगवान के विशेष भाव हैं या उसके आंशिक प्रकाश हैं। अवश्य ही स्वभाव से ही पूर्ण होने के कारण आंशिक प्रकाश होने पर भी भगवद्रूप में सभी पूर्ण हैं। ऐसे सबमें स्थित, सर्वनियन्ता, सर्वाधार सबको सत्ता और शक्ति देने वाले, सबके अद्वितीय कारण, सबसे परे और सर्वमय भगवान का वर्णन कौन कर सकता है। भगवान ने गीता में कहा है -
‘मुझ अव्यक्तमूर्ति के द्वारा यह सारा जगत् व्याप्त हो रहा है; सब भूत मुझमें हैं, परंतु मैं उनमें नहीं हूँ। वे सब भूत भी मुझमें नहीं हैं; मेरा यह ऐश्वरयोग देखो कि सम्पूर्ण भूतों का उत्पादक और धारण-पोषण करने वाला होकर भी में स्वरूपतः उन भूतों में स्थित नहीं हूँ।’ भगवान के इस कथन में परस्पर-विरोधी बातें प्रतीत होती हैं। ‘मैं सबमें हूँ और किसी में नहीं हूँ; सब मुझमें हैं और कोई भी मुझमें नहीं है’- इस कथन का कोई अर्थ सहज ही समझ में नहीं आता। इसीलिये ‘परमार्थ’ और ‘व्यवहार’ का भेद करके इसकी व्याख्या की जाती है। परंतु यही तो भगवान का ‘ऐश्वरयोग’ है, हमारी विषय-विमोहित जडबुद्धि इसे कैसे जान सकती है। हमारे लिये जो असम्भव है, भगवान के लिये वह सब कुछ सम्भव है। भगवान में परस्पर विरोधी गुण-धर्मों का युगपत् प्रकाश है तथा सब विरोधों को समन्वय है। इसीलिये तो भगवान का किसी भी प्रकार से किया हुआ वर्णन भगवान पर सत्यरूप से लागू होता है। |
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- ↑ 9। 4-5
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