श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा-कृष्ण की उपासनाजो भक्त भगवान श्रीकृष्ण की जिस भाव से आराधना करता है, भगवान उसे उसकी वासना के अनुरूप ही फल प्रदान किया करते हैं। तभी वे भक्त के भक्ति-ऋण से मुक्त होते हैं। परंतु इन मधुरभावापन्न व्रज-सुन्दरियों के भाव के अनुरूप फल भगवान दे ही नहीं पाते। इनके भाव के अनुकूल कुछ भी देने का अर्थ है-अपने ही सुख को और बढ़ाना, प्रकारान्तर से इनके भजन-ऋण से और भी दब जाना; क्योंकि गोपसुन्दरियों के हृदय में न किसी कामना का संकल्प है, न तनिक भी आत्मसुख की अभिलाषा है और न किसी वासनालेश का ही अस्तित्व है। उनका जीवन सहज ही केवल श्रीकृष्णसुख के निमित्त है। इसी से भगवान श्रीकृष्ण नित्य-निरन्तर व्रज सुन्दरियों के ऋणी बने हुए हैं। श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं-
‘गोपियो! तुमने मेरे लिये गृह की उन कठिन बेड़ियों को तोड़ डाला है, जिन्हें तोड़ना बहुत ही कठिन है। तुम्हारा यह आत्म मिलन निर्मल-निर्दोष है। मैं देवताओं की आयु में भी तुम्हारा ऋण नहीं चुका सकता। तुम अपने सौम्य स्वभाव से ही मुझे ऋण मुक्त कर सकती हो।’ जीव कितनी भी उत्कृष्ट सुदुर्लभ वस्तु, स्थिति, मति या गति चाहे या प्राप्त करे, श्रीकृष्ण प्रेमधन के साथ किसी की भी, किसी अंश में भी तुलना नहीं हो सकती। वरं जब तक इन दूसरी-दूसरी वस्तु स्थितियों की इच्छा रहती है, तब तक इस प्रेम के पवित्र भाव का उदय होना भी कठिन होता है-
|
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ श्रीमद्भा.. 10। 32। 22
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज