श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा-कृष्ण की उपासना‘भोग और मोक्ष की (प्रेमरस का उदय होने से पहले ही उसके भावाभिलाष रूप रक्त को पी जाने वाली) पिशाचिनी स्पृहा जब तक हृदय में रहती है, तब तक हृदय में उस प्रेमसुख का उदय ही कैसे हो सकता है?’ श्रीव्रजधाम की व्रजसुन्दरियों से परिवृत श्रीराधा-माधव की लीला बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनियों के लिये भी अगोचर है, जिस प्राप्त करने के लिये महान् ऐश्वर्यशाली शिव-ब्रह्मादि देवगण भी सदा समुत्सुक रहते हैं और जिसकी जरा-सी झाँकी पाकर ही वे अपने को कृतकृत्य मानते हैं, श्रीनारायण की वक्षोविलासिनी भगवती श्रीश्रीरमा देवी भी जिसके लिये नित्य लालायित रहती है, स्वंय ब्रह्मविद्या जिसकी प्राप्ति के लिये कल्पों तक तपस्या करती है-उस दिव्य मधुरसुधामयी भगवत्-प्रेम-रस-लीला के आस्वादन के लिये चित्त की जो प्रबल और अदम्य लालसा होती है, उसी का नाम यथार्थ में ‘मधुर प्रेम’ है। यह मधुर प्रेम ही सर्वोपरि श्रेष्ठ और एकमात्र वांछनीय है। यही प्रेमियों का ‘परम धन’ है। इस धन की अनन्य आकांक्षा करके अनन्य साधन करते रहने पर साधक को उसकी सिद्वावस्था में इस परम अमूल्य प्रेमधन की प्राप्ति हो सकती है। इस भजन-प्रणाली में सबसे पहले आवश्यक है-असत्संग (धन, स्त्री, मान का और इनके संग) का परित्याग, इन्द्रिय-सुख की वासना का सर्वथा त्याग, जनसंसर्ग में अरति, श्रीकृष्ण के नाम-गुण-लीलादि के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय के श्रवण-कथन-मनन से चित्त की विरक्ति, निज-सुख-मोक्षतर्क के इच्छालेश का सर्वथा त्याग और अपने को व्रज में स्थित एक किशोर वयस्का सुन्दरी, गोपिका के रूप में अर्थात मंजरी-देह प्राप्त गोपकुमारी के रूप में ले जाकर-मन से ऐसा मानकर विशुद्ध रागमयी श्रीललितादि सखियों, श्रीरूपमंजरी आदि मंजरियों एंव तदनुगा नित्यसिद्धा अन्यान्य व्रजदेवियों में से किसी एक के अनुगत होकर उसके मधुर सेवाभाव का अवलम्बन करके उक्त गुरुरूपा सखी की बायीं ओर रहकर निरन्तर सेवा में संलग्न रहना-अर्थात मन में ऐसा भाव, चिन्तन, धारणा या ध्यान करना कि ‘मैं एक किशोरवय की परमा सुन्दरी गोपकुमारी हूँ; मेरे हृदय में इन्द्रियसुख की, नाम-कीर्ति की, लोक-परलोक की या भोग-मोक्ष की- किसी भी वासना का लेश भी नहीं है; श्रीराधा-माधव का सुख-सेवा-रसास्वादन ही मेरा स्वभाव है और मैं अपनी इन गुरुरूपा नित्यसिद्धा सखी के वामपार्श्र्व में रहकर उनकी अनुगता होकर सदा-सर्वदा श्रीराधा-माधव की यथोचित सेवा में संलग्न हूँ।’ बाह्यरूप में जीभ से सदा-सर्वदा श्रीकृष्ण-नाम का मधुर जप और संसार के समस्त भोग-पदार्थों से नित्य उपरामता का अभ्यास बना रहना चाहिये। श्रीराधा-कृष्ण-युगल रूप की मधुर रागमयी आराधना का यह एक सक्षिप्त संकेत मात्र है। शेष भगवत्कृपा। |
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